________________ 278 Homage to Vaisali विभिन्न प्रकार के राजपुरुष इनके समापति होते थे। न्याय-प्रणाली की एक खास विशेषता यह थी कि अभियुक्त को तभी दण्ड मिलता था जब वह क्रमशः सात न्याय-समितियों से एक स्वर से अपराधी करार दिया जाय। इनमें से एक के द्वारा वह छोड़ दिया जा सकता था। इस प्रकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा इस ढंग से की जाती थी जिसकी उपमा सम्भवतः संसार के इतिहास में नहीं है। लिच्छविगण का एक बड़ा बल था वज्जि-संघ के अन्य सदस्यों से संयुक्त रहना। जैसा कि भीष्म ने कहा था, "गणों को यदि जीवित रहना है तो उन्हें सर्वदा संघ-प्रणाली का अवलम्बन करना चाहिए"। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में भी इस पर बहुत जोर दिया है।" प्राचीन भारतीय शासकों ने संघ को उपयोगिता अच्छी तरह समझी थी। उनका विश्वास था कि “संघ-सेना के बल से" भौतिक समृद्धि प्राप्त की जा सकती थी। महाभारत में इस बात का प्रमाण मिलता है जिससे सिद्ध होता है कि बाहरी राज्य भी संघ-राज्यों से सन्धि के इच्छुक रहते थे। इस प्रकार मल्लों और लिच्छवियों से संघ कायम किया गया था। इस पर विश्वास करने का कारण है कि यह संघ महावीर की मृत्यु के समय था। इस संघ की वास्तविक प्रकृति को ढंढ निकालना मुश्किल है। यह एक प्रकार की सन्धि थी अथवा आजकल के अर्थ में फेडरेशन था, यह कहना कठिन है / लेकिन आजकल के ही समान संघ-समिति में क्षेत्रफल अथवा जनसंख्या का कुछ भी विचार न करके संघ-बद्ध राज्यों की समानता अच्छी तरह बरती जाती थी। यह इस बात से स्पष्ट है कि संघ कौंसिल में नौ लिच्छवियों से और नौ मल्लों से कुल अठारह सदस्य थे। डा. जायसवाल का विचार है कि कोसल के राजा के साथ भी इस संयुक्त कौंसिल का किसी प्रकार का राजनीतिक समझौता या मेल था।' इस बात पर आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं, क्योंकि मगध कोसल लिच्छवियों का समान रूप से शत्रु था। यहाँ प्राचीन भारतीय प्रजातन्त्रों के, विशेष कर लिच्छवियों के, शासनकार्य पर एक दृष्टि डाल लेना अच्छा होगा। गणों की साधारण-समा में समानता का सिद्धान्त बरता जाता था / अर्थ पर पूरा ध्यान दिया जाता था। युद्ध-कला उतनी ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी, 1. के० पी० जायसवाल, उल्लिखित, पृ० 52-53 / . 2. आर० सी० मजूमवार, उल्लिखित, 10 233 / 3. वही। 4. जर्नल ऑव बिहार ऐण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, सितम्बर, 1915, पृ० 177 / 5. अर्थशास्त्र, पृ० 376 / . 6. जर्नल ऑब बिहार ऐड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, सितम्बर 1915, पृ० 177 / 7. के. पी० जायसवाल, उल्लिखित, पृ० 54 / 8. वही। . 9. वहो।