________________ भगवान बुद्ध और वैशाली भिक्षु जगवीश कश्यप नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स . इस समारोह के आयोजकों को हम धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकते, जिनके सत्प्रयासों से यह आयोजन किया गया है जिससे मुझे भी भगवान तथागत की कृपाधिकारिणी भूमि वैशाली के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने का मौका मिला है। भारत के सांस्कृतिक इतिहास में वैशाली का बड़ा ही गौरवपूर्ण स्थान है। निस्संदेह ऐसा बहुत कम स्थान मिलेगा, जिसको वैशाली की तरह अनेक युगप्रवर्तक महापुरुषों ने बार-बार अपना चरण-रज देकर पावन बनाया हो / वैशाली का सांस्कृतिक महत्व देशकाल की सीमा को लांघ चुका है / मुझे चीन में भी वैशाली की पुण्य स्मृति में बसाये गये, वैशाली नामक स्मृति नगर को देखने का अवसर मिला है, जिसको चीन के निवासी, जो सुदूर देशों की यात्रा नहीं कर सकते, वास्तविक वैशाली मान कर, अपनी श्रद्धांजलि अर्पित किया करते हैं। इससे प्रकट होता है कि भारत ही नहीं, वरन् भारत से बाहर भी, वैशाली के प्रति लोगों के हृदय में कितनी अगाध श्रद्धा रहती है। - भगवान बुद्ध के साथ वैशाली का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यहां ये कई बार आये थे, और उनके जीवन की कुछ वैसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ यहाँ घटी थीं, जिनका बौद्ध साहित्य में बड़ा ऊंचा स्थान है। यद्यपि पालि साहित्य से इस बात का स्पष्ट संकेत नहीं मिलता कि आलार-कालाम का वह आश्रम कहां था, जहाँ कपिलवस्तु से आकर भगवान ने अपनी साधना शुरू की थी; किन्तु, बुद्ध-निर्वाण के लगभग तीन शताब्दी बाद के एक संस्कृत बौद्ध अन्य, 'ललितविस्तर' में इस बात का उल्लेख मिलता है कि कपिलवस्तु से भगवान पहले वैशाली आये जहां उन्हें आलार-कालाम से भेंट हुई, जिसके आषम में उन्होंने योगाभ्यास आरम्भ किया था, जिस कठोर साधना में उनका शरीर सूख कर अस्थि-पंजर मात्र रह गया था। बौद्ध साहित्य से विदित होता है कि जनसंख्या में वृद्धि होने के कारण तीन वार इसके नगर प्राकार को बढ़ाकर विशाल बनाना पड़ा था, इसलिये इसका नाम वैशाली पड़ा / वैशाली उन दिनों आज की तरह विपन्न, जर्जर, और उजाड़ नहीं थी। बल्कि धन-धान्य से परिपूर्ण 1. सातवें वैशाली मोहत्सव (अप्रैल 18, 1951) के अवसर पर दिया गया अध्यक्षीय भाषण /