________________ वैशाली की महत्ता 25 ही देखने को मिले। उस समय तक वैशाली का गर्वयुक्त और उज्ज्वल अमर इतिहास-सूर्य डूब चुका था। तब भी कुछ और शताब्दियों तक वैशाली ने किसी तरीके से इतिहास में अपना अस्तित्व बनाये रखा और कई एक बौद्ध भक्तों ने तब भी वैशाली के बौद्ध-धर्म-प्रेम को जीवित रखा। इसका प्रमाण हम बारहवीं शताब्दी की लिखी हुई एक बौद्ध 'प्रज्ञापारमिता' को पोथी में पाते हैं / उस काल में जहां-तहाँ बौद्ध तारादेवी के मन्दिर थे, उनकी एक सचित्र फिहरिस्त में हमलोगों को वैशाली में पूजा पानेवाली एक तारा-मूर्ति का नाम मिलता है-"तीरभुक्ती वैशालीतारा" अर्थात् तीरभुक्ति जिले के वैशाली शहर में तारादेवी का एक मन्दिर है / उस युग में वैशाली के जिले का नाम या तीरभुक्ति या तिरहुत / उस काल की एक और चीज मिली है। वह है बुद्ध-प्रतिमा की पाद-पीठ पर खुदा हुआ एक शिलालेख ".."देयधर्मोऽयम् प्रवरमहायानयायिनः करणिकोच्छाहः माणिक्यसुतस्य..." -इस मूर्ति का, एक महायानपंथी भक्त ने, जो माणिक्य का लड़का और उत्साहनामधारी था और जिसका पेशा मुंशीगिरी था, धर्मपूर्वक दान किया। यह हुआ एक संक्षिप्त दृष्टि से बैशाली नगर के इतिहास का परिचय, जिस नगर ने अपने पूर्वयुग में उत्तमोत्तम कर्मों की महिमा से इतिहास के पन्नों को उज्ज्वल कर रखा है, जो नगर अपने अनेक कीर्तिस्तम्भों से एवं बुद्धदेव और उनकी शिष्यमण्डली के पदचिह्नों के कारण बार-बार जगमगा उठा है, जिस नगर में बुद्धदेव की परमभक्त-मण्डली लिच्छवि जाति ने बौद्धधर्म के भण्डार को पूरा किया है और जिस नगर को भगवान् तीर्थङ्कर महावीर की जन्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है।