________________ . आज के भारत के लिए वशाली का सन्देश' . जयचन्द्र विद्यालंकार यह धरती जिस पर आज हम खड़े हैं एक उज्ज्वल अतीत की स्मृतियों से घिरी है। इसने मानव को सामूहिक जीवन के उच्चतम रूप का विकास करते और अपनी गरिमा को चरम सीमा तक चढ़ते देखा है; जो कि शासनतन्त्र के एक सुव्यवस्थित लोकसत्तात्मक रूप के नीचे ही सम्भव है जहां हर मनुष्य दूसरे का समकक्ष समझा जाता हो। किसी आधुनिक यूरोपीय साम्राज्यकामी प्रचारक ने भारतवासियों को "देवताओं का गुलाम" कह कर पुकारा है / भारतवासी आज विदेशियों के गुलाम हैं, यह तो एक मोटा तथ्य है, और कि वे अपनी मनोदशा से देवताओं के गुलाम हैं, यह भी आंशिक रूप से सच हो सकता है। पर भगवान् बुद्ध के समय के भारतीय, देवताओं के समकक्ष या कभी-कभी उनसे ऊंचे समझे जाते थे। बुद्ध और उनके भिक्षु मनुष्यों के साथ-साथ देवताओं को भी उपदेश देते थे, जो उनके पास श्रद्धापूर्वक आते / और वैशाली के नागरिक बुद्ध को अपनी चाल-ढाल में बिलकुल देवताओं के-से ही प्रतीत हुए। एक बार नगर से गुजरते हुए उन्होंने अपने भिक्षुओं से कहा था कि उनमें से जिन्होंने देवताओं की परिषद् न देखी हो, वे वैशाली के लिच्छवियों की परिषद् को देखें और उस पर से कल्पना करें कि देवताओं की परिषद् कैसी दीखती होगी। ईसापूर्व की छठी शताब्दी में उत्तर बिहार के लोगों के उस अवतरण की तुलना में उनका १९वीं सदी का उतार मानों स्वर्ग से नरक में हुआ हो; १९वीं सदी भारत के इतिहास में सबसे अंधियारा युग था; जब कि उसके युग और युगियों से घर और बाहर सर्वत्र ढोरो 1. द्वितीय वैशाली-महोत्सव (10 अप्रैल, 1946) में सभापति पद से दिया गया भाषण /