________________ वैशाली की महत्ता :23 पेशावर में वैशाली के इस पिण्डपात्र को मंगा लिया / फाहियान ने गान्धार में बुद्ध का पिण्डपात्र देखा था। लिच्छवियों को लौटा देने के बाद बुद्धदेव ने कुशीनारा में निर्वाण-लाम किया। मगर उनके निर्वाण-लाम के बाद भी वैशाली ने बौद्ध इतिहास में बहुत से नये पन्ने जोड़ दिये हैं। बुद्धदेव के शरीर के भस्म को लेकर राजाओं में बहुत लड़ाई हुई। अन्त में सभी को उस राख का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा मिला। लिच्छवियों को भी थोड़ा-सा हिस्सा मिला। उसके ऊपर लिच्छवियों ने वैशाली में बुद्धदेव के 'शरीर-स्तूप' का निर्माण किया था। इसी प्रकार आनन्द ने जब देहत्याग किया, तब उनके शरीर का एक हिस्सा जाकर वैशाली में गिरा और दूसरा हिस्सा राजगृह में गिरा। लिच्छवि लोगों ने आनन्द का भी 'शरीर-स्तूप' वैशाली में बनाया। बुद्ध-निर्वाण के एक सौ वर्ष बाद वैशाली में बौद्ध-संघ की प्रसिद्ध द्वितीय संगीति हुई। इस सभा में भारत के विभिन्न स्थानों से बौद्ध भिक्षुकों के करीब सात-सौ प्रतिनिधि सम्मिलित हुए थे। इस विचार-सभा की जरूरत इसलिए हुई थी कि वैशाली के भिक्षुकों ने धर्म-साधना और विनय के नियम-कानून में दश नयी विधियों को लागू करने की कोशिश की। इस नयी विधि की समस्याएँ कुछ इस प्रकार थीं - (1) भिक्षु लोग निमन्त्रण में जाने के समय सींग के अन्दर नमक रख कर ले जा सकते हैं या नहीं। (2) दिन-दोपहर के दो घड़ी बाद भिक्षुक लोग भोजन कर सकते हैं या नहीं। (3) भोजन के बाद गांव में जाने पर यदि वहां भोजन करने का निमन्त्रण मिले, तो फिर खा सकते हैं या नहीं। (4) बिना झालर का आसन और दरी इस्तमाल कर सकते हैं या नहीं।. (5) सोना-चाँदी दान के रूप में ले सकते हैं या नहीं। बहुत से गण्यमान्य भिक्षुक और स्थविर इस वितर्क-सभा में सम्मिलित हुए / उनमें प्रधान थे-स्थविर रेवत, स्थविर सम्भूत और स्थविर यश / सब लोगों ने बहुत विचार करके इन दश विधियों के विरुद्ध अपनी राय दी। वैशाली के भिक्षुकों की यह नयी विधि चालू नहीं वैशाली के भिक्षुकगण तर्कशास्त्र में बहुत प्रवीण थे और लोग उनसे तर्क में परास्त हो जाते थे। आर्य नागार्जुन और उनके मशहूर शिष्य आर्य भिक्षुदेव के साथ बातचीत में इसका हमें प्रमाण मिलता है। एक बार वैशाली के भिक्षुकों की विचार-सभा में निमन्त्रण पाकर भिक्षुदेव वैशाली जाने के लिये तैयार हुए / तब नागार्जुन ने उनको सम्बोधित करके कहा-“हे देव ! वैशाली के नवीन पंथी भिक्षुक तकशास्त्र में बहुत ही चतुर हैं / तुम उनके . मुकाबले नहीं हो / इसलिये मुझको ही स्वयं जाना होगा।" - इसके बाद वैशाली फिर इतिहास के पन्नों में सन् 308 ई० में चमक उठी, जब पाटलिपुत्र के गुप्तवंश के राजा चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमारदेवी का