Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 10
________________ न्यास, समासोक्ति, दिमावना, दीपक, अतिशय, हेद, पर्यायोक्ति, समाहित, परिकृति स्थासंख्य, विषय, सहोचि, विरोध, अवसर, सार, संक्षेप, समुच्चय, अप्रस्तुतप्रशंसा, पझाक्ली, अनुमान, परिसंख्मा, प्रश्नोत्तर और सकर-ये पैंतीस अर्थालङ्कार गिनाये गये हैं। चित्रालद्वार में भी एकस्वरचित्र, मात्राध्युतचित्र, विन्दुच्युत्तचित्र, एकव्यसननित्र और व्यअनच्युतचित्र-ये पाँच भेद किये गये हैं। इसी प्रकार वझोक्ति के दो भेद माने गये है-सभा क्षेषमूलवक्रोक्ति और अभहरलेषमूलवकोति। अनुपास के दो भेद बताये गये है—छेकानुप्रास और लाटानुभास । बाग्भट ने यमक के अष्टादश मेट बताए । ___ अर्थालडारो में उपमा के इतने भेद सलाये गये हैं---उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वयोपना, अनेकोपमेयमूला उपमा और अनेकोपमानमूला उपमा । उपना के विभिन्न भेदों को. बसला सुकने के पश्चात् उपमामत दोष बतलाये गये है। रूपक के जिन भेदों की भोर आचार्य वाग्भट की वृष्टि गयी है देहै-अखण्ड समस्तरूपक, असमस्त अखण्डरूपक, समस्त खण्टरूपक और असमस्तखण्डरूपक । विरोध मलबार दो प्रकार का बतलाया गया हैप्रथम तो बाद जहाँ शन्दजनित विरोध हो और द्वितीय जहाँ अर्थजन्य रोिध हो। अमिनपदमूल और भिन्नपदमूल---ये दी श्लेष के भेद कहे गये हैं। अनुमान अककार के तीन भेद किये गये हैं अतीतबोधक अनुमात, अमागतवस्तुकानरूप अनुमान और बर्तमानवस्तुशानरूप अनुमान । प्रमोसर नीन प्रकार का माना गया है जहाँ उत्तर स्पष्ट हो। जहाँ वह अस्पष्ट हो और जहाँ बह रपष्ट और अस्पष्ट उभयरूप हो। __यहाँ ध्यान देने की बात तो यह है कि कुछ अलहारों के मैद-प्रभेद गिनाने में बाग्मट बहुत आगे बढ़ गये हैं, किन्तु कुछ पैसे भलकारों को उन्होंने छोड़ दिया है। जिनका अन्य आलङ्कारिकों ने वर्णन किया है। इसका कारण स्वयं वाग्भट ने इस प्रकार बतलाया है भश्चमस्कारिता धा स्यादुकान्स व एष था । साक्रियाणामन्यासामनिवन्धनिषधनम् ।। ( ४, १४०) अर्थात जो अलङ्कार ग्रन्थान्तर में विद्यमान रहते हुये भी इस पुस्तक में नहीं करे गये हैं उनके न कहने का कारण यही है कि उनमें या तो चमत्कार विशेष ही नहीं है अथवा उनका भी समाबेश उक्त अलङ्कारों में हो जाता है। . प्रस्तुत परिच्छेद में रीतियों पर भी विचार किया गया है। अधिकांश आलङ्कारिकों ने तीन रीतियों को स्वीकार किया है-वैदभी, गौड़ी और पाञ्चाली । वाग्भः इन आचार्यों से सहमत नहीं हैं, वे केवल दो ही रीतियों को मानते हैं। वे रीतियाँ है—गौडीया और चैदी 1 जिसमें समास-बाहुल्य हो वह गौडीया और जिसमें समासौ का अभाक या न्यूनत्व हो वह वैदर्भी रीति कहलाती है।

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