Book Title: Tulsi Prajna 2006 07 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 8
________________ जब हम उसे काला कह रहे हैं तो यह एक सापेक्ष वर्णन भी हो सकता है और यदि कोई दूसरा वस्त्र उसे इतना अधिक काला हो तो शायद उसके मुकाबले में हम इसे अकृष्ण ही चाहें । एक तीसरी सीमा यह है कि वस्त्र के रूप में भी वस्तुत: तो सभी रंग हैं किन्तु जब हम इसे काला कहते हैं तो उसका अर्थ केवल इतना है कि दूसरे सब रंग काले रंग में दब गये हैं और होते हुए भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। सोपक्षता का यह सिद्धान्त जैन प्रमाण मीमांसा की आत्मा है। सापेक्षता : बौद्ध और वेदान्ती दृष्टिकोण जैनेतर भारतीय दर्शनों में वस्तुवादी दर्शन तो थोड़े-थोड़े मतभेद सहित कहीं न कहीं अनेकान्तवाद को स्वीकार कर लेते हैं किन्तु क्षणिकवादी बौद्ध तथा मायावादी वेदान्ती को अनेकान्त कदापि स्वीकार नहीं है। डॉ. सात्करि मुखर्जी ने इस विषय का ऊहापोह करते हुए निष्कर्ष दिए । उनका कहना है कि हमारे तर्क के कुछ पक्ष स्वतः सिद्ध होते हैं और कुछ अनुभवसापेक्ष होते हैं। उदाहरणत: यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि गुलाबी रंग लाल रंग से हल्का है तो इस वाक्य की सत्यता जानने के लिए अनुभव में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि गुलाबी का शब्दार्थ ही है-हल्का लाल। इसके विपरीत यदि कोई कहे कि देवदत्त का वजन 70 किलोग्राम है तो इस वाक्य की सत्यता को जांचने के लिए हमें देवदत्त को तौलना होगा, क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि जिस व्यक्ति का नाम देवदत्त हो उसका वजन अनिवार्य रूप से 70 किलो हो, अत: इस वाक्य की सत्यता स्वत:सिद्ध नहीं है-अपितु अनुभव गम्य है। डॉ. मुखर्जी का कहना है कि यह सत्य स्वतः सिद्ध है कि देवदत्त है और देवदत्त नहीं है-ये दोनों वाक्य एक साथ सत्य नहीं हो सकते, क्योंकि होने और नहीं होने में परस्पर विरोध है-यह बात स्वत: सिद्ध है। जैन का कहना है कि हमें देवदत्त का स्व चतुष्ट्य से होना और पर चतुष्ट्य से नहीं होना अनुभव से प्रत्यक्ष प्रतीति में आ रहा है। देवदत्त दिल्ली में है तो जयपुर में नहीं है। यदि उसकी अवस्था 60 वर्ष है और वह 30 वर्ष और जीवित रहने वाला है तो वह जन्म से मृत्यु पर्यन्त की 60 वर्ष की कालावधि में है, उस कालावधि से पहले या बाद में नहीं है। इस प्रकार देवदत्त का अस्तित्व देश और काल से सीमित हैशास्त्रीय भाषा में देशकालावच्छिन्न है। ऐसी स्थिति में उसके अस्तित्व को सर्वकालिक और सार्वदेशिक नहीं माना जा सकता। अतः हमें यही कहना होगा कि वह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है। इसके विपरीत वेदान्ती और बौद्ध का कहना है कि यदि हमारे अनुभव का स्वतः सिद्ध सत्य के साथ टकराव हो जाये तो हमें अपने अनुभव की सत्यता की पड़ताल करनी चाहिए तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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