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जीवों और पौधों के लुप्त होने की समस्या
डा० सुरेश जैन एवं श्रीमती चित्रलेखा जैन
[वैज्ञानिक एवं प्रौद्यौगिक विकास ने एक ओर हमारी बड़ी सहायता की है तथा दूसरी ओर प्रकृति के कार्य में बाधा डाली है । पृथ्वी पर कुल जीवित जातियों की २० प्रतिशत जातियां मानव की प्रकृति विरोधी क्रिया-कलापों से आने वाले २० वर्षों में लुप्त हो जायेंगी। मनुष्य ने अन्य जीवों का अपने आर्थिक एवं मनोरंजनात्मक प्रयोजनों के लिए बिना प्राकृतिक नियमों का अनुसरण किए शोषण किया है एवं कर रहा है। यह सर्वविदित हैं कि प्रत्येक जीव की प्रकृति में अपनी भूमिका है तथा उसकी अनुपस्थिति प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न करती है जिसका कुप्रभाव पृथिवी के अन्य जीवों पर पड़ता है। लुप्त होने वाले सभी प्राणी वर्ग, विकसित पशुओं एवं पौधों के उच्च वर्ग से संबंधित हैं। इनमें विभिन्न फूलदार पौधे, जिनमें पेड़ भी सम्मिलित हैं तथा हाथी, गैंडा, व्हेल, चीता, जेबरा, कबूतर, तोता आदि जीव आते हैं। जीवों के तथा पौधों के लुप्त होने की समस्या ने मानव को सोचने के लिए वाध्य किया है।
-संपादक] पृथ्वी पर लगभग ३० लाख जीवित जातियां रहती हैं जिनमें से लगभग ६ लाख प्राणियों की जातियों के अस्तित्व को (वर्तमान) विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से संबंधित क्रियाओं से विनाश का भय उत्पन्न हो गया है। सहचर प्राणियों की ६८ जातियां प्रतिदिन इस पृथ्वी से लुप्त होती जा रही है । मनुष्य जो कि बाहरी दुनिया का सम्राट है, अपने ही मावों एवं आवेगों की आंतरिक दुनिया का दास बन गया है। कृत्रिम साधनों एवं उपकरणों ने व्यक्ति में आत्म अभिमान विकसित करने में बड़ी सहायता की है। प्रौद्योगिक विकास हमें शक्ति तो प्रदान करते हैं पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहने जैसे जीवन मूल्य नहीं सिखाते इसीलिए मानव जाति को भी परमाणु शस्त्रों के उत्पादन जैसी अपनी ही क्रियाओं से विनाश के खतरे का सामना करना पड़ रहा हैं । परमाणु युद्ध जीते नहीं जा सकते वरन् वे इस उपग्रह से ही जीवन को विनष्ट कर देंगे। विलोप या विनाश के कारण
उपग्रह पर जीवन के असंख्य प्रकार हवा, जल एवं मिट्टी में विचरण करते हुए अरबों-खरबों वर्षों से रह रहे हैं। पर्यावरण में संतुलन जीवन की उत्पति के समय से खंड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ६२)
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