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संवर कहते हैं। संवर की सहायता से व्यक्ति आत्मिक गुणों को घात करने वाले कषायरूपी शत्रु को हरा देता है तथा शत्रुजय होकर परमसुख को प्राप्त कर लेता है । मरणविभक्ति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जीव को कर्मास्रवों के निरोध का प्रयत्न करना चाहिए। जहां तक संभव हो उसे कर्म संचय की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। उसे इंद्रिय निग्रह तथा संयम की मर्यादा को बांध लेना चाहिए तथा कषायों को कृश करने वाली साधना का आलंबन लेना चाहिए।" क्योंकि जब तक व्यक्ति के कषाय अल्प नहीं होंगे तब तक वह अपने आत्मकल्याण के विषय में नहीं सोच पाएगा। कारण प्रबल राग-द्वेष के वशीभूत होने के कारण वह उचित-अनुचित का निर्णय नहीं कर पाएगा। इसीलिए क्रोधरूपी कषाय को क्षमा से, मानरूपी कषाय को नम्रता से, सरलता से मायारूपी कषाय तथा संतोष से लोभरूपी कषाय को जीतने का निर्देश दिया गया है। इन कषायों को अल्प करके ही कोई अपना कल्याण कर सकता है। किसी ने कहा भी है कि संवर के द्वारा ही कषायों को अल्प किया जा सकता है एवं इसकी सहायता से संसार रूपी दुर्गम और दुर्गति देने वाले पथ से मुक्ति पाई जा सकती है ।
आस्रव को संवर की सहायता से रोककर आगमों में कहे गए विभिन्न प्रकार के तपों की सहायता से संचित कर्मों का क्षय करना निर्जरा है। कर्मों के क्षय के क्रम में निर्जरा के बारे में बार-बार चितन करना ही निर्जराणप्रेक्षा है। संवर के द्वारा कर्मों का आत्मा की तरफ भाने की प्रक्रिया पर केवल रोक लगा देने से ही जीव के समस्त कषाय नष्ट नहीं हो जाते हैं। पूर्व जन्म में उसने जो कर्म किए हैं वह संचित कर्म कहलाता है और जब तक यह संचित कर्म नष्ट नहीं हो जाता है आत्मा अपने गुणों को सम्पूर्ण रूप में नहीं जान सकती है। अतः मनुष्य को संचित कर्मों का क्षय करना ही होता है । आचार्य शिवार्य का कहना है कि पूर्व कर्मों का क्षय करना ही निर्जरा है और इसके पूर्ण क्षय किए बिना आत्मा अपने गुणों को नहीं जान सकती।" कर्म क्षय हेतु सकाम और अकाम दो प्रकार की निर्जरा की जाती है। सकाम निर्जरा सप्रयोजन होती है और इस हेतु अनशन, अवमौदर्य, ध्यान आदि बारह प्रकार के बाह्य और आंतरिक तप का अभ्यास किया जाता है। विभिन्न गतियों (यथा मनुष्य, देव, पशु (तियंच), नारक) में जीव अनिच्छापूर्वक जो कर्म करते हैं (ब्रह्मचर्यादि) उनके फलस्वरूप भी उनके कर्मों की निर्जरा होती है और यह अकाम निर्जरा कहलाती है । इस प्रकार सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके व्यक्ति चरमपद को प्राप्त कर असीम सुख की अनुभूति करता है।
लोक के स्वरूप के बारे में चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । षड्द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) से निर्मित यह लोक तीन भागों में बंटा हुआ है । ५ १. ऊर्ध्वालोक, २. मध्यलोक और ३. अधोलोक । ऊध्र्वलोक लोक का सबसे अधिक पुनीत क्षेत्र है। यहां के निवासी शुभ कर्मों से युक्त सुखपूर्वक जीवन जीते हैं। इसे देवलोक के नाम से भी जाना जाता है। सिद्धादि आत्माओं का यह निवास स्थान है। मत्यं लोक या मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक के नीचे
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तुलसी प्रज्ञा
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