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उत्पन्न होती है और जो हेतु उत्पन्न होता है वह अवश्य ही अपने आधार को नष्ट कर देता है । ऐसी स्थिति में अनुमान भी निविषय हो जाता है। दूसरी ओर स्मृति का विषय भूतकाल में नहीं, अपितु वर्तमान काल में होता है, क्योंकि स्मृति की उत्पत्ति मानसिक अर्थ से होती है. जो भूतकाल एवं वर्नमान काल दोनों कालों में है। तीसरे, स्मृति को पराधीन कह कर अप्रमाण माना गया है। स्मृति को पराधीन कहने का कारण है, उसका किसी निमित्त से उत्पन्न होना अर्थात् जो ज्ञान किसी निमित्त से उत्पन्न नहीं है, वह पराधीन नहीं है। जो पराधीन नहीं है, वही प्रमाण है । किन्तु ऐसा कौन सा प्रमाण है, जो किसी भी निमित्त से उत्पन्न नहीं है ? ऐसी स्थिति में ऐसे सभी प्रमाण, जो किसी निमित्त से उत्पन्न होते हैं, अप्रमाण सिद्ध होते हैं।
मीमांसकों, नैयायिकों एवं बौद्धों द्वारा जैन दर्शन में स्वीकृत स्मृति पर लगाए गए आक्षेप निराधार ही नहीं, अपितु उनके द्वारा माने गए यथार्थ ज्ञान के मापदण्ड के आधार पर स्मृति यथार्थ ज्ञान भी सिद्ध होती है । मीमांसकों ने यथार्थ ज्ञान के तीन मुख्य मापदण्ड, 'निश्चितता', 'नवीनता' एवं 'अबाधिता', माने हैं । अर्थात् जिस ज्ञान में निश्चितता, नवीनता, एवं अबाधिता हो वह यथार्थ ज्ञान है, अन्यथा अयथार्थ । स्मृति में तीनों तत्त्व हैं, क्योंकि स्मति में संशय, विपर्यय और विस्मरण रूप समारोप का निराकरण होने से निश्चितता है। अर्थात् उसमें कोई संशय नहीं रहता है । ग्रहीतग्राहिता संभव नहीं होने के कारण उसमें नवीनता है, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है । वह किसी दूसरे ज्ञान से बाधित भी नहीं होती है। यदि किसी स्मृति ज्ञान में ये तीनों तत्त्व नहीं हो, तब वह स्मृति नहीं अपितु स्मृत्याभास है।
नैयायिकों ने 'यथार्थता' एवं 'प्रयोजनपूरकता' को यथार्थ ज्ञान के मुख्य मापदण्ड स्वीकार किए हैं । यथार्थ ज्ञान के इन मापदण्डों से स्मृति ज्ञान भी यथार्थ ज्ञान सिद्ध होता है. क्योंकि स्मृति अनुभूत अर्थ को उसी रूप में, जिस रूप में वह है, ग्रहण करती है, भिन्न रूप में नहीं। यदि वह उसे भिन्न रूप में या उसके स्थान पर किसी अन्य विषय को ग्रहण करती है, तब वह स्मृति नहीं कही जाती, अपितु स्मृत्या भास कहा जाता है । दूसरे, स्मृति से हमारे प्रयोजन की पूर्ति भी होती है, क्योंकि अधिकतर मानवीय व्यवहार इसी के आधार पर होते हैं। बौद्धों ने 'अविसंवादक' ज्ञान को यथार्थ ज्ञान या सम्यक ज्ञान कहा है। जो अनुभव से बाधित न हो तथा ज्ञात वस्तु को प्राप्त करा दे वह ‘अविसंवादक' है। स्मृति अनुभव से बाधित भी नहीं होती तथा ज्ञात वस्तु को प्राप्त भी करती है । अतः सिद्ध होता है कि स्मृति प्रमाण
दूसरी ओर जैन दार्शनिकों द्वारा की गई स्मृति की व्याख्या भी निर्दोष नहीं है, क्योंकि जैन दार्शनिकों के अनुसार स्मति की उत्पत्ति में 'धारणा' एक मात्र निमित्त है और धारणा निमित्त होने के कारण स्मृति उन्हीं विषयों की हो सकती है, जिनका पहले इन्द्रिय प्रत्यक्ष हुआ हो, क्योंकि धारणा की उत्पत्ति मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्षों में मानी गई है । किन्तु हमारे ज्ञान का एक बहुत बड़ा भाग जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं, जैसे गणितीय ज्ञान, ज्यामितीय ज्ञान, ज्योतिषीय ज्ञान आदि, उसकी स्मृति संभव है या नहीं ? यदि संभव है तब उसे स्मृति कहा जाए या कुछ और । अर्थात् उस ज्ञान की २३०
तुलसी प्रज्ञा
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