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में उस अधिदेवता की स्मृति जगी होगी। जो औत्पतिकी प्रतिभा का मूर्तिमन्तअवतरण था
'होनहार वीरवान चीकणा पात' बात विख्यात है। ऊगंतो हो तपै तेज रवि उदाहरण नवजात है,
हो सन्तां ! प्रतिभा उत्पत्तिया पाई आकार हो ॥३॥ श्रद्धा का सुगठित-धरातल गीति के लिए अधिक उपयुक्त होता है। अपने उपास्य के चरणों में सात्विकी-श्रद्धा के उपचित होते ही उसी के नाम-धाम सम्बन्धी शब्द अभिव्यक्त होने लगते हैं। हृदयस्थ श्रद्धा को ही गीतकार अपने प्रभु चरणों में समर्पित करने लगता है :
श्रद्धा स्वीकारो तेरापन्थ रा अधि देवता । श्रद्धा आस्था के बिना पूर्ण कहां होती है ? पूज्यास्पद के प्रति पूर्ण आस्था के जगते ही गीत की स्वच्छ-तोया तरंगायित होने लगती है :
___ थारै पर म्हारी आस्था अपरम्पार हो। उपास्य या प्रेमी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन गीत-काव्य का मूल तत्त्व होता है। मेघदूत का यक्ष अपनी यक्षिणी को विधाता की पहली सृष्टि कहता है-'सृष्टियो व धातुः' । भक्तिमती मीरा के 'वसो मेरे नैनन में नन्दलाल' को कौन नहीं जानता ? तेरापंथ-प्रबोध के उपास्य का स्वरूप....
जनजीवन आधार हो, हृद-तंत्री रा तार हो।
मरुधर रा मन्दार हो, तेरापंथ रा अधिवेवता ॥ सहजता और नैसर्गिकता गीत के प्राण तत्त्व होते हैं। जब गीतकार की मानसिकता सहज हो जाती है तब रागिनियां निसर्गतया उच्छलित होने लगती हैं। विवेच्य-कवि अपने वर्णनीय के नान्हीवय में शादी का सुन्दर वर्णन करता है :
नान्ही वय में ही भिक्खण-शादी री बाजी शहनाई, बगड़ी में ससुराल सहचरी सौभागण सुगणी बाई,
हो सन्तां! जाइ एक सुता, सहज सिमट्यो परिवार हो॥५॥ अन्तर्मन की पुकार की शाब्दिक अभिव्यक्ति ही गीत है । गीतकार कभी भी रचना-काल में ताल-लय-छन्द भादि पर ध्यान नहीं देता, क्योंकि ये सब बुद्धि के विषय हैं, परन्तु गीत-स्फुरणा काल में तो बुद्धि होती ही नहीं, केवल अन्तर्मन की साधु-ध्वनि सुनाई पड़ती है । वहीं अन्तर्ध्वनि जब बाह्य-शब्दाश्रित होती है तो लोक की भाषा में गीत-शब्द-वाच्य होती है :
कुण जाणे के हुयो अचानक राते तेज बुखार चढ्यो, सीयो-दाहो लग्यो भयानक बेचैनी रो वार बढ्यो,
हो सन्तां ! खुलग्यो अन्तः स्फुरणा रो अभिनव द्वार हो ॥६॥ गीत सशक्त भाषा में अभिव्यक्त होते हैं। न केवल गीतकार अपितु श्रोतापाठकादि पर इतना प्रभाव डालते हैं कि वह उसी में तन्मय हो जाता है :२६६
तुलसी प्रज्ञा
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