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व्यक्तित्व को उजागर किया गया 1 जीतमल जी का वर्णन देखिए :
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जयाचार्य
मघवागणी
स्वामी जी स्वर्गस्थ, जीत रो जनम, युगल मरुधर धोरी । पंथ प्रगति पर रही एक सो सांवरिया रो स्थिर थ्योरी ॥
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जयाचार्य अनिवार्य रूप शासन रो कायाकल्प करूयो ।
गढ्यो नयो इतिहास खास सार्थक स्वीकृत संकल्प कर्यो ।। हो सतां ! वज्रासन मुद्रा में जुड़तो दरबार हो ।
हो सन्तां ! भैक्षव वाङ्मय रा भास्वर भाष्यकार हो ।। १०५ ।।
मघजी पुण्यवान है, म्हारे पंडित है 'जय' शब्द कह्या, अट्ठारं ग्यारै वरसा लग युवाचार्य आचार्य रह्या, हो सन्तां ! निर्मल निर्मायो निश्चल निरहंकार हो ॥१०७॥
विवेच्य काव्य में गीत की ललित - लावण्यमयी - लोक-लहरियों के माध्यम से तत्त्व दर्शन या जैन दर्शन के कतिपय विषयों का निरूपण किया गया है :
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१. अनुशासन ही संघ का आधार होता है - ५५ २. साध्य सिद्धि में साधन-शुद्धि अनिवार्य है—६३ ३. निर्गुण आत्मा की उपासना ही जिनमत है - ६६ ४. जिन सिद्धान्त शिथिलता ग्राह्य नहीं है- ६८ ५. नवपदार्थादि का निर्देश- -७०
६. प्रतिदिन की साधु-चर्या - ७३
७. संलेखना व्रत - ७७
बिम्बात्मकता श्रेष्ठ काव्य का महत्त्वपूर्ण गुण है । कवि अपने शब्दों के द्वारा श्रोता के सामने वर्णनीय का स्पष्ट बिम्ब / चित्र अंकित कर दे तभी वह सफल रचनाकार की श्रेणी में परिगणित होता है । गीत-काव्यों में तो बिम्बन-शिल्प प्राण के रूप में निहित रहता है । तेरापंथ- प्रबोध के प्रत्येक पद्य में बिम्बात्मकता विद्यमान है । काव्यारम्भ में रमणीया श्रद्धा बिम्बित हो रही है :
श्रद्धा स्वीकारो तेरापन्थ रा अधि देवता । बालक भीखण का सुन्दर बिम्ब अवलोकनीय है
शुभ मुहुरत में नामकरण संस्कार सझायो बालक रो ।
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हो सन्तां ! बचपन में ही बालूड़ो तेज-तरार हो । नान्ही वय और भार्या सौभागण सुगणी-बाई को ॥ रूप लावण्य का निर्देश -
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नान्ही वय में ही भिक्खण-शादी री बाजी शहनाई । बगड़ी में ससुराल सहचरी सौभागण सुगणी बाई ||
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तुलसी प्रज्ञा
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