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एवं श्रवण-सुखदता की समृद्धि होती है। तेरापंथ-प्रबोध में अनेक सुन्दर सूक्तियों का समायोजन होने से इसका रमणीय सौन्दर्य और बढ़ गया है। कुछ सूक्ति-सौरभ का निदर्शन प्रस्तुत है :
सिद्धांतां सच्चाई रो सब स्यूं बड़ो महत्व है ॥२२॥ कर कंगण आल्यां स्य दीखे फिर के करसी भारसी ? ॥२२॥ अपणी आत्मा ही अपणी पहरेदार हो ॥२७॥ साध्यसिद्धि में साधन री शुद्धी अनिवार हो ॥६॥ बलजबरी चलन धार्मिक कारोबार हो ॥६४॥ 'ज्योतिर्मय चिन्मय दीप' हरै अन्धार हो ॥५५॥ निक्षेपो स्थापना निर्गुण आकार हो ॥६६॥ रहिज्यो आराधता इंगित-आकार हो॥२॥ ममता चेलां री ले डूबै मझधार हो ॥८३॥
गूंगो भी बोले, पंगू चढ़े पहाड़ हो ।।८।। अलंकार
'अलंक्रीयते अनेन इति अलंकारः' जिससे काव्य-शरीर का सौन्दर्य सम्बद्धित हो उसे अलंकार कहते हैं। गीतकाव्य में यद्यपि गेयता की प्रधानता होती है फिर भी अलंकारों का विनियोजन भी कम नहीं होता है। विवेच्य काव्य में अनेक रूप्य एवं रम्य अलंकारों का प्रयोग हुआ है जिसका संक्षिप्त निदर्शन इस प्रकार है :अनुप्रास
ससुराल सहचरी सौमागण सुगणीबाई ॥५॥
निर्मल निर्मायी निश्चल निरहंकार हो ॥१०७।। उपमा
उपमान और उपमेय का साधर्म्य-मंगलाचरण में अधिदेवता की उपमा 'मरुधर रा मन्दार' से दी गई है।
एक स्थल पर गुण-ज्ञान रूप प्रकाश सम्पन्न भैक्षवगण की उपमा सूर्य से दी गई है :
चमक्या सूरज-सा भैक्षवगण गिगनार हो ॥१०२॥ एक सुन्दर उपमा जिसमें मुनि श्री.........."के लिए सिंह और ज्योतिर्मयअंगार को उपमान बनाया गया है :
सिंहवत्तिस्यू............।
बण ज्योतिर्मय अंगार हो ॥१०३।। रूपक
विवेच्य काव्य में सबसे अधिक इसी अलंकार का प्रयोग किया गया है । रूपक में उपमान और उपमेय की एकरूपता हो जाती है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
एक स्थल पर यह बताया गया है कि औत्पतिकी प्रतिमा ही शिक्षु-भीखण के रूप में अवत
प्रतिभा उत्पत्ति या पाई आकार हो ॥३।।
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तुलसी प्रज्ञा
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