Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 103
________________ आचार्य तुलसी की नई कृति : तेरापन्थ प्रबोध गीत-गंगा का अवतरण हृदय के शून्य-धरातल से होता है । वह शून्यता मशानीशून्यता नहीं बल्कि समाधि की विषय रहित अवस्था का नाम है जहां स्वकीयत्वपरकीयत्व तद्-अतद् सब संमिश्रित हो ज्योतिर्मय बन जाते हैं । रीति-प्रीति, नीति- गीति सब साहचर्यत्व को प्राप्त हो जाते हैं, जहां जीवन का पूर्ण प्रस्फुटन होता है, मंगल का पूर्ण विकास होता है तथा भास्वर - चिन्मय दीप प्रज्वलित हो जाता है । किसी समर्थ - उपजीव्य का भावना, कल्पना, वेदना, वह शून्यता ध्यान, धारणा आदि के द्वारा कथमपि उत्पन्न नहीं हो सकती । उसका प्रारंभ भक्ति के मनोरम - मानसरोवर से होता है । भक्ति-भाव की अविच्छिन्नअजस्रा एवं श्रद्धा की शान्त स्रोतस्विनी परस्पर जहां मिल जाती हैं उसी संगम पर गीत की झर-झर निर्झरिणी तरंगायित होने लगती है, जो कमनीय- कला की परमविश्रान्ति है | भगवान्, प्रभु गुरु प्रेमी आदि समाश्रयण कर वह धारा बह चलती है, जिससे श्रद्धा, आस्था आदि का अद्भुत समन्वय होता है । कवि जब कभी तन्मयत्व की स्थिति में होता है तब उसके अवचेतन मन में स्थित पूर्वं संस्कार भक्ति की भावधारा के रूप में फूट पड़ते हैं । वह भाव-धारा इतनी सशक्त होती है कि कवि तो उसमें स्वयं बह ही जाता है साथ ही वह पूरे संसार को भी बहा ले जाती है । निश्चय ही 'तेरापन्थ - प्रबोध' के गीतकार इस अवस्था को प्राप्त हुए होंगे । इसमें स्वयं वे या सहृदय चेतन प्राणी ही प्रमाण हैं । गीत काव्य-कला का परम निकष तो है ही । सुमधुर - गला की वहीं गीत काव्य भी है । कला और गला जहां मिश्रित हो जाती हैं है । स्वयं इस गीत का संगायक कला और गला का सम्राट् है । विरह की उर्वरा भूमि में गीत का बीज उगता है । वह विरह प्रभु, गुरु, आचार्य मार्गदर्शक किसी के प्रति हो सकता है । गीतगोबिन्द, भागवती मीराबाई की गीतिकाएं और संसार प्रसिद्ध गीतिकाव्य मेघदूत इसके प्रमाण हैं । सौन्दर्य के रम्य - उद्यान में गीत- कमल खिलता है । जब कवि या गीतकार किसी समर्थ के सौन्दर्य में रम जाता है, जब उसकी ऐन्द्रिक-वृत्तियां थम जाती हैं, अहं विश्राम पाता है तब गीत की स्वर लहरियां हृदय-वीणा पर झंकृत होने लगती हैं । श्रद्धास्पद की स्मृति गीतोत्पत्ति में सहायक होती है । अवश्य ही तेरापंथ - प्रबोध की कमनीयकला और ऋतम्भरी प्रज्ञा सम्पन्न कवि आचार्य श्री तुलसी के हृदय २६५ खंड १८, रमणीय परिणति की स्फुरणा होती अंक ३, (अक्टू० - सित०, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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