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१८. न्यायदीपिका में उद्धृत, पृ० ५५ १९. प्रमाणं द्विधा ।
-प्रमाणमीमांसा, सू० १.१.९ तद् द्वेधा।
-परीक्षामुख, सू० २.१ तच्छब्देन प्रमाणं परामृश्यते । तत्प्रमाणं स्वरूपेणाबगतं द्वेधा द्विप्रकारमेव, सकलप्रमाणभेदानामौवांतर्भावात् ।
-प्रमेय रत्नमाला, पृ० ४२ २०. विशदं प्रत्यक्षम् ।
-परीक्षामुख, सू० २.३ विशदः प्रत्यक्षम् ।
-प्रमाणमीमांसा, सू० १.१.१३ २१. प्रत्यक्षादिनिमित्त............।
--परीक्षामुख, सू० ३.२ प्रत्यक्षादिनिमित्तमित्यत्रादिशब्देन परोक्षमपि गृह्यते ।
-प्रमेयरत्नमाला, पृ० १३३ २२. जैन न्याय, पृ० १५४ २३. स्मृतिहेतुर्धारणा।
-प्रमाणमीमांसा, सू० १.१.२९ वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर (पृ० ३४९) में विद्यानन्द के ‘स्मृतिहेतुर्धारणा' उस लक्षण का खण्डन किया है। उनका कहना है कि धारणा ज्ञान स्मृति काल तक नहीं रह सकता, क्योंकि परमागम में छद्मस्थ के उपयोग का काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है, अतः स्मृति का साक्षात् कारण ज्ञाता की एक शक्ति विशेष है जिसे संस्कार भी कहते हैं। धारणा ज्ञान तो उसी समय समाप्त हो जाता है । अतः उसे परम्परा से स्मृति का हेतु कह सकते हैं।
-जैन न्याय, पृ० १५४ किन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता, क्योंकि प्रमाणमीमांसा स्वोपज्ञ वृत्ति (हिन्दीव्याख्या) में धारणा को ही संस्कार कहा गया है । दूसरे, विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है कि धारणा संख्यात या असंख्यात काल तक रहती है । अतः वादिदेव का यह भेद युक्तिसंगत नहीं है। 'धारणा' और 'संस्कार' में मात्र शब्दों का भेद रह जाता है, अर्थ का नहीं । इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने 'संस्कार' शब्द के स्थान पर 'धारणा' शब्द का प्रयोग अधिक किया है।
यद्यपि कुछ स्थानों पर 'संस्कार' शब्द का प्रयोग भी किया है। -लेखक २४. जैन न्याय, पृ० १९५ २५. अवग्रहादीनां वा क्रमोपजनधर्माणां पूर्व पूर्व प्रमाणमुत्तरमुत्तरं फलम् ।
-प्रमाणमीमांसा, सू० १.१.३९
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तुलसी प्रज्ञा
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