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पुस्तक समीक्षा
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१. जैन धर्म और भक्ति - ( आचार्य कुन्दकुन्द के सन्दर्भ में ) । लेखक - डॉ० प्रेमसागर जैन | प्रकाशक - दिगम्बर जैन मुनि विद्यानंद शोधपीठ, बड़ौत (मेरठ) | प्रथम संस्करण - सन् १९६१ । मूल्य – १५ पृष्ट १०३+१२ ।
रुपये ।
प्राचीन भक्ति साहित्य में शांडिल्य भक्ति सूत्र, नारद भक्तिसूत्र, पराभक्तिसूत्र और भक्ति मीमांसा सूत्र आदि बहुत प्राचीन हैं ये भक्ति साहित्य की विशालता और उसमें जन अभिरूचि के व्यापक विस्तार को प्रमाणित करते हैं । 'भक्ति मीमांसा' में श्रीमद् भागवत पुराण की मान्यता का समर्थन है कि भक्ति, मोक्ष से भी अधिक गरीयसी है । मीमांसा सूत्रकार ने स्वयं कह भी दिया है - " भक्तिरेव परमः पुरुषार्थो मोक्षस्यापुरुषार्थत्वादिति तु भागवता: " - ( ४.१.७) अर्थात् भक्ति ही पुरुषार्थं है । मोक्ष पुरुषार्थं नहीं । यह भागवतों का मत है ।
भक्ति दो प्रकार की है । जो भक्ति काम, द्वेष, भय और स्नेह वश होती है वह अविहिता ( निषिद्धा ) कही जाती हैं । विहिता भक्ति को पं० बोपदेव ( १३ वीं सदी ) ने ३६ अंगों में विभक्त करके, उसमें से त्रिवर्ग - श्रवण, कीर्तन, स्मरण को अंतरंगतम भक्त्यंग कहा है । भक्ति के ३६ अंग क्रमश: इस प्रकार हैं - ( १ ) ब्रह्म निष्ठ गुरु के प्रति शरणागति, (२) मन की सर्वतः असंगता, (३) सत्संग (४) प्राणियों के प्रति यथोचित दया, मैत्री और विनय ( ५ ) शौच (६) तप ( ७ ) तितिक्षा ( ८ ) मौन ( ९ ) स्वाध्याय (१०) सरलता ( ११ ) ब्रह्मचर्यं ( १२ ) अहिंसा ( १३ ) सुख दुःख आदि द्वन्द्वों में समत्व (१४) सर्वत्र परमात्म दर्शन (१५) एकांत सेवन (१६) अनिकेता (गृहादि में अनासक्ति ) ( १७ ) पवित्र वस्त्र धारण (१८) संतोष ( १९ ) भगवच्छास्त्रों में श्रद्धा ( २० ) अन्य शास्त्रों की निन्दा न करना (२१) मन वाणी कर्म का संयम (२२) सत्यभाषण ( २३ ) शम ( अंत:करण का निग्रह) (२४) दम (ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह) (२५) भगवत् गुण श्रवण (२६) कीर्तन (२७) ध्यान (२८) भगवदर्थं कर्म (२९) सर्वस्व भगवदर्पण (३०) भगवद् भक्तों से प्रेम ( ३१ ) स्थावर जंगम जगत् और साधु-महात्माओं की सेवा, (३२) परस्पर भगवद् गुण कथन ( ३३ ) परस्पर प्रेम ( ३४ ) परस्पर शांति, संतोषप्रद आचरण (३५) स्वयं भगवत् स्मरण और (३६) दूसरों को भगवत् स्मरण कराना ।
इन ३६ प्रकारों में सात, छह, पांच, चार और तीन क्रमशः अंतरंग भक्ति अंग कहे गए हैं। अपनी माता देवहूति को मुनि कपिल ने भक्ति के सात, श्री कृष्ण को खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू० - दिस०, ९२ )
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