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पहली बार उद्घाटन हुआ है । जून सन् १९४६ में जब कैबनिट मिशन ने विधान मण्डल में विधायकों को चुनने के लिए केवल मुस्लिम और सिक्खों को विशेष अधिकार दिया तो डॉ अम्बेडकर स्वतंत्र उम्मीदवार बनें। २८ सितम्बर सन् १९५१ को अनुसूचित जातियों की विकास प्रक्रिया पर मतभेद होने से उन्होंने मंत्रि-मण्डल से त्यागपत्र दे दिया किन्तु जब उन्हें संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन चुना गया तो उन्होंने लिखा-'संविधान सभा में प्रवेश करते समय अस्पृश्य समाज के हितों की रक्षा करने के अलावा कोई अन्य उद्देश्य मेरे सामने नहीं था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि संविधान सभा के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए मेरा चयन होगा । जब मुझे मसौदा समिति में लिया गया तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब मुझे मसौदा कमेटी का चेयरमैन चुना गया तो मेरा आश्चर्य चरम सीमा पर पहुंच गया।'
वस्तुतः संविधान के वे ही शिल्पी थे । शेष सदस्य तो अलंकारिक अधिक बने । उन्होंने संविधान को मात्र ११४ दिनों में पारित करा दिया और छूआछूत जैसे सामाजिक दोष को अपराध रूप में स्वीकृत करा दिया। दूसरे कई क्षेत्रों में भी उन्होंने अद्भुत काम किया । जैसे अशोक चक्र, तीन शेरों का चिह्न आदि की प्रतिष्ठा कराना उन्हीं के बूते का काम था । “शिक्षित बनों, संगठित रहो और संघर्ष करो, अपने में विश्वास रखो और आशा कभी मत छोड़ो'-उनका यह अजर, अमर, वाक्य उनके स्वयं के जीवन की कहानी है। और यही कहानी एक बौद्ध के जीवन की भी है यदि इममें शिक्षित बनने के स्थान पर "बुद्ध की शरण' लेने की बात भी जोड़ दी जाय ।
पुस्तक बुद्ध भगवान् के अनुयायी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी- ऐसी आशा है। एक जैन विद्वान द्वारा लिखित होने से इसमें 'धर्म परिवर्तन' की पृष्ठभूमि में अनेकों बातें विचारोत्तेजक हैं जिन पर चर्चा-परिचर्चा चलेगी। डॉ० अम्बेडकर का यह विचार कि “धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं है"-निस्संदेह तर्क संगत है ! दरअसल इस विषय पर बहुत अधिक सोचा समझा और लिखा जाना चाहिए । डॉ० भास्कर ने विषय की अच्छी शुरूआत कर दी है। तदर्थ उन्हें बधाई । पुस्तक का गेटअप अच्छा है किन्तु संपादन और प्रकाशन में सुधार होना चाहिए ।
-परमेश्वर सोलंकी ३. जैन परामनोविज्ञान-ले० मुनि डॉ० राजेन्द्र रन्नेश तथा साध्वी डॉ० प्रभाश्री प्रका० श्री अम्बा गुरु शोध संस्थान, उदयपुर । प्र. सं. १६९२ पृ. सं. १२७ मू० ५०/
'जैन परामनोविज्ञान' एक अछूते विषय पर दो जैन साधकों की समवेत कृति है। परामनोविज्ञान की प्रचलित अवधारणाओं-पुनर्जन्म, प्रेत-विश्वास, स्वप्न आदि पर पर पश्चिमी विचारकों के चिंतन को ध्यान में रखकर जैन वाङ्मय में इनका प्रसार किस रूप में मिलता है, इसे पुस्तक में समझाया गया है । इसके 'पुरोवाक्' में लेखकों ने स्वीकार किया है, कि "यह उपक्रम वैज्ञानिक ज्ञान का सशक्त संदर्भ नहीं है किन्तु परामनोवैज्ञानिकों, शोधछात्रों के लिए एक प्रारम्भिक प्रकल्पना के रूप में इसका असंदिग्ध महत्त्व है ।” (पृ० ८) 'आशीर्वचन' में श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद' ने पुस्तक के दोनों लेखकों---डा. राजेन्द्र मुनि 'रत्नेश' तथा साध्वी डा० प्रभाश्री के मनोविज्ञान
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तुलसी प्रज्ञा
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