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बातें भगवान् ने सामने प्रकट करने और उनके तथा भक्तिपूरित भावना अभिव्यक्त करता है । पास इच्छित वस्तु न मिलने पर कभी रोता है, कभी भर कर नाच उठता है । ठीक यही दशा भक्त कवियों सामने अपने हृदय को खोलने में तनिक भी संकोच नहीं कारण ही भक्तों द्वारा रचित स्तोत्र काव्यों में चित्त को पिघलाने
करते ।
है ।
जैन परम्परा में भी भक्ति रस से स्निग्ध और आत्म निवेदन से परिपूर्ण अनेक स्तोत्र काव्यों का प्रणयन हुआ है । स्तोत्र काव्यों का प्रारम्भ आचार्य समन्तभद्र ने स्ययंभू स्तोत्र देवागम स्तोत्र आदि स्तुति रचनाओं से किया । सिद्धसेन दिवाकर का " कल्याण मन्दिर स्तोत्र" तथा मानतुंगाचार्य का "भक्तामर स्तोत्र" इस क्रम में विशेष उल्लेखनीय हैं । तेरापंथ के साधु-साध्वियों ने भी स्तोत्र काव्यों को पर्याप्त विकसित किया है । उन्होंने स्वतंत्र स्तोत्र काव्यों की रचना भी की है और समस्या पूर्तिमूलक स्तोत्र काव्यों की रचना भी की है । समस्या पूर्ति मूलक स्तोत्र काव्यों में किसी अन्य काव्य के श्लोकों का एक-एक चरण लेकर उस पर नई श्लोक रचना के द्वारा नये काव्य की रचना की जाती है । इस पद्धति का प्रारम्भ जैन परम्परा में सर्व प्रथम आचार्य जिनसेन ने किया । उन्होंने कालिदास के मेघदूत के समस्त पद्यों के समग्र चरणों की पूर्ति करते हुए पाश्वभ्युदय की रचना की । मेघदूत जैसे शृंगार रस प्रधान काव्य की परिणति शांत और संवेग रस में करना कवि की श्लाघनीय प्रतिभा का परिणाम है ।
गुणकीर्तन में अपने हृदय की कोमल जिस प्रकार बालक अपनी माता के हंसता है और आत्म विश्वास में की होती है । वे अपने इष्ट के
इस गुण के कारण वाली गहरी शक्ति
मेघदूत के चनुर्थ चरण की पूर्ति में दो जैन काव्य और उपलब्ध हैं । उनमें पहला "नेमिदूत" है और दूसरा "शीलदूत" है । नेमिदूत की रचना विक्रम कवि ने तथा शीलदूत की रचना चरित्रसुन्दरगणी द्वारा हुई है ।
तेरापंथ के साधु-साध्वियों में समस्या पूर्ति स्तोत्र काव्यों का प्रवाह भी एक साथ ही उमड़ा । वि० सं० १९८० में सर्व प्रथम मुनिश्री नथमल (बागोर ) ने सिद्धसेन दिवाकर रचित कल्याण मंदिर स्तोत्र की पदपूर्ति करते हुए दो कालू कल्याण मंदिर स्तोत्रों की रचना की । वि० सं० १९८९ में आचार्य श्री तुलसी ने भी कल्याण मंदिर स्तोत्र के पृथक्-पृथक् चरण लेकर 'कालू कल्याण मंदिर' स्तोत्र की रचना की । यह क्रम क्रमशः विकसित होता गया और आगे चलकर मुनिश्री कानमल ने मानतुंगाचार्य के भक्तामर स्तोत्र की पदपूर्ति करते हुए "कालू भक्तामर ” की रचना की तथा मुनिश्री सोहनलाल (चूरू) ने कल्याण मंदिर स्तोत्र और भक्तामर स्तोत्र की पदपूर्ति करते हुए क्रमशः कालू कल्याण मंदिर और कालु भक्ताभर स्तोत्रों की रचना की ।
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स्वतंत्र स्तोत्र काव्यों में आचार्य श्री तुलसी द्वारा रचित 'चतुर्विंशति स्तवन" विशेष उल्लेखनीय है । इसकी कोमल पदावली में अन्तः करण से सहज निःसृत भावों की अनुस्यूति है । इसकी रचना विक्रम संवत २००० के आस-पास हुई थी। इसके अतिरिक्त स्तोत्र काव्यों की एक लम्बी श्रृंखला उपलब्ध है जिसमें
उल्लेखनीय है—
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तुलसी प्रज्ञा
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