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या असंख्यात काल तक बनी रहती है । जैन दार्शनिकों के अनुसार धारणा के चार प्रमुख तत्त्व हैं, जिनके आधार पर धारणा की प्रक्रिया को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है
यहां प्रश्न है कि क्या 'धारणा' के अतिरिक्त भी कोई अन्य ज्ञान स्मृति का निमित्त है ? इसके जबाब में कहा गया है कि स्मृति की उत्पत्ति में धारणा ही एक मात्र निमित्त है, कोई अन्य ज्ञान नहीं और इसकी उत्पत्ति में एक ही निमित्त होने तथा स्वयं का अन्य परोक्षप्रमाणों की उत्पत्ति में निमित्त होने के कारण इसको परोक्ष प्रमाणों के क्रम में सबसे पहले रखा गया है ।
धारणा रूप इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति का निमित्त मानने तथा उसी के विषय को स्मृति का विषय मानने पर प्रश्न होता है कि फिर स्मृति तथा इन्द्रिय प्रत्यक्ष में क्या भेद रह जाएगा । इसके समाधान में कहा गया है" कि स्मृति की उत्पत्ति में धारणा रूप इन्द्रिय प्रत्यक्ष निमित्त है, जबकि प्रत्यक्ष की उत्पत्ति में चक्षु आदि इन्द्रिय निमित्त हैं । दूसरे, स्मृति 'वह' स्वरूप वाली है और प्रत्यक्ष 'यह' स्वरूप वाला । तीसरे, स्मृति का का विषय अनुभूत अर्थ है, जबकि प्रत्यक्ष का विषय वर्तमान अर्थ है | चौथे, प्रत्यक्ष स्मृति की उत्पत्ति में निमित्त है, जबकि स्मृति प्रत्यक्ष का फल है ।
पुनः प्रश्न होता है कि स्मृति का फल क्या है ? ज्ञान की उत्पत्ति क्रम में पूर्व - पूर्व ज्ञान प्रमाण है और उत्तर-उत्तर ज्ञान फल, २५ अर्थात् जिस प्रकार प्रत्यक्ष का फल स्मृति है उसी प्रकार स्मृति का फल 'प्रत्यभिज्ञान" है । दूसरे, प्रमाण के दो फल बतलाए हैं - साक्षात्फल और पारम्पर्यफल । अज्ञान की निवृति साक्षात्फल है और परम्परा से प्राप्त होने वाला पारम्पर्यफल । स्मृति द्वारा अनुभूत अर्थ को प्रकाशित कर देना साक्षात्फल है और हितकर वस्तु को प्राप्त करा देना तथा अहितकर वस्तु को त्याग देना, परम्परा से प्राप्त होने वाले फल हैं ।
ध्यातव्य है कि सभी स्मृति ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं होते हैं, क्योंकि कई बार जिस विषय का पूर्व काल में कभी अनुभव नहीं हुआ है, ऐसा विषय भी भ्रमवश हमारे ज्ञान का विषय बन जाता है या जिस अर्थ का पूर्व काल में अनुभव हुआ है, उसी अर्थ को विषय नहीं करके उसके सदृश किसी अन्य अर्थ को विषय कर लेता है । तब ऐसे ज्ञान को स्मृति ज्ञान नहीं कहकर ' स्मृत्याभास' कहते हैं । वादिदेव सूरि ने स्मृत्याभास का स्वरूप बतलाया है कि " जिसका पहले अनुभव नहीं हुआ हो उस वस्तु या विषय में 'वह' ऐसा ज्ञान हो जाना स्मृत्याभास है, जैसे जिस मुनि-मण्डल का पहले अनुभव नहीं हुआ हो उसमें 'वह मुनि-मण्डल' ऐसा ज्ञान होना । "
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जैन दार्शनिकों के अतिरिक्त सभी भारतीय दार्शनिकों ने स्मृति को अप्रमा तथा अप्रमाण माना है | स्मृत्ति को अप्रमाण कहने का मुख्य आधार उसका 'गृहीग्राही होना' है, अर्थात् वह उसी अर्थ को अपना विषय बनाती है, जिसको पहले जाना हुआ है । फलतः उस अर्थ को वह कोई विशेष रूप से नहीं जानती अर्थात् उस ज्ञान में कोई नवीनता या अपूर्वता का अंश नहीं होता है, अपितु जो पहले जाना गया है उतना ही या उससे भी कम जानता है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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