Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 65
________________ प्रभाकर के भाष्यकार शालिकनाथ ने स्मृति को अप्रमाण मानने का कारण बतलाया है कि स्मृति किसी अन्य अनुभूति के संस्कारों से उत्पन्न होती है, अर्थात् स्मृति इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होती है । फलतः उसमें पूर्वज्ञान की पुनरावृत्ति होती है। यद्यपि नैयायिकों ने स्मृति को प्रमाण नहीं माना है, किन्तु उनका मत है कि स्मृति को अप्रमाण सिद्ध करने के लिए नवीनता या अनधिगतता को लाना न तो आवश्यक है और न ही न्यायसंगत, क्योंकि ऐसा मानने पर धारावाहिक ज्ञान की युक्तिसंगत व्याख्या नहीं हो सकती है । जयन्त स्मति को अप्रमाण सिद्ध करने के लिए 'अर्थ से उत्पन्न न होना' को लाते हैं। उसका मत है कि स्मृति की उत्पत्ति अर्थ से न होकर पूर्व ज्ञान के संस्कारों से होती है। बौद्धों का आक्षेप है कि स्मृति का न तो कोई स्वरूप है और न ही विषय । तब, ऐसी स्थिति में स्मृति को प्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं है । बौद्धों का प्रश्न है कि स्मृति से आपका क्या तात्पर्य है । ज्ञान मात्र को स्मृति कहते हैं या अनुभूत अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को ? यदि ज्ञान मात्र को स्मृति कहते हैं, तब तो सभी ज्ञान-प्रत्यक्षादि-स्मृति कहे जाएंगे' जो युक्तिसंगत नहीं है । दूसरे, यदि पहले अनुभव किए हुए अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं, तब देवदत्त जिस अर्थ को स्मृति से जानता है उसी अर्थ को यज्ञदत्त प्रत्यक्ष से जान रहा होता है, तब वह भी स्मृति कहा जाएगा जो कि तर्क संगत नहीं है । बौद्धों का दूसरा प्रश्न है कि स्मृति किसको विषय करती है ? अर्थ मात्र को विषय करती है या जिसका पहले अनुभव किया जा चुका है उस अर्थ को। यदि अर्थ मात्र को विषय करती है तब तो सभी प्रमाण स्मृति हो जाएंगे और यदि अनुभूत अर्थ को विषय करती है, तब उसी वस्तु या अर्थ को जब कोई अन्य व्यक्ति प्रत्यक्ष या धारावाही ज्ञान से जानता है, तब वे ज्ञान भी स्मृति कहे जाएंगे। उपर्युक्त आक्षेपों के अतिरिक्त पूर्व पक्ष की ओर से स्मृति की प्रमाणता पर दो अन्य आक्षेप भी किए जाते हैं । पहला, स्मृति वर्तमान में प्रत्यक्ष या अनुभव किए जा रहे अर्थ को विषय नहीं करती है, अपितु अनुभूत अर्थ को विषय करती है और जो अर्थ पूर्व काल में था, उसकी वर्तमान काल में कोई सत्ता नहीं रहती है । अतः स्मृति निविषय है ।" फलतः उसे प्रमाण स्वीकार नहीं किया जा सकता है । दूसरा, स्मृति अनुभव के अधीन है अर्थात् जिस अर्थ का पहले अनुभव नहीं हुआ है, उसका स्मरण भी नहीं हो सकता है । इस प्रकार पराधीन होने से वह प्रमाण नहीं है ।४ इन आक्षेपों का परिहार करते हुए जैन दार्शनिकों का कहना है कि यह कहना कि स्मृति ग्रहीत को ग्रहण करने के कारण प्रमाण नहीं है, युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि स्मृति गृहीतग्राही होते हुए भी उसमें नवीनता या अपूर्वता का अंश है, जैसे ईहा ज्ञान अवग्रह ज्ञान के द्वारा ग्रहण किए गए विषय को ही अपना विषय बनाता है, फिर भी उसमें कुछ नवीनता या अपूर्वता रहती है । उसी प्रकार धारणा रूप इन्द्रिय प्रत्यक्ष खंड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२) २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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