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तथा अधोलोक के ऊपर लोक के मध्य में स्थित है। इस लोक में मनुष्य, पशु आदि जीव रहते हैं। यहां रहने वाले जीवों को जरा-मरण, सुख-दुःख भादि क्लेशों का संताप सहना पड़ता है। यहां के प्राणियों में राग द्वेष की मनोवृत्ति पाई जाती है जिसके कारण उसे नाना प्रकार के परिषहों की यातना भोगनी पड़ती है। इस लोक के प्राणी (मनुष्यादि) कर्मबन्धनों को तोड़कर परमपद अहंत्, सिद्ध आदि को भी प्राप्त कर सकते हैं तथा कर्मबंधन को और दृढ़ करके अधोलोक के निवासी भी बन सकते हैं । अधोलोक को नरक माना गया है। यहां रहने वाले जीवों को महान् दुःख भोगने पड़ते हैं । उन्हें अत्यधिक उष्णता, अत्यधिक शीत, तीव्र दुर्गन्ध आदि को सहना पड़ता है। वे तीव्र क्षुधा की पीड़ा को भोगते हैं, लेकिन पेट भर आहार नहीं प्राप्त कर सकते हैं । 'तत्त्वार्थसूत्र' में नरकभूमि का वर्णन करते हुए कहा गया है-यहां अति प्रचंड शीत, आतप, वध, दुर्गंध, भय आदि जनित वेदनाएं हैं। यहां पर किसी प्रकार का सुख नहीं है । नरक में रहने वाले जीव नपुंसक होते हैं । अतः उन्हें कामसुख भी उपलब्ध नहीं होता है । " लोकभावना में लोक के इन्हीं स्वरूपों का चित्रण किया जाता है । मानव लोक के इस स्वरूप को समझकर यह निर्णय कर सकता है कि उसे किस लोक का निवासी बनना है।
धर्म क्या है ? मानव को धर्म से क्या लाभ हो सकता है ? उसे धर्म के प्रति कौन से कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिए इत्यादि प्रश्नों का समाधान धर्माणुप्रेक्षा के चिंतन से हो जाता है। धर्म आस्था का विषय है और आस्था के कारण ही व्यक्ति किसी विषय में श्रद्धा रख सकता है। श्रद्धा के वशीभूत होकर व्यक्ति प्रायः गलत कार्यों की ओर उन्मुख नहीं हो पाता है। गलत कार्य नहीं करने से उसके मन में संतोष के भाव का उदय होता है और संतोषी व्यक्ति बड़ा ही धैर्यवान् एवं संयमी होता है । यह राग-द्वेष से भी बुरी तरह से जकड़ा हुआ नहीं होता है। जिसके अल्प राग-द्वेष होते हैं, वह मोक्ष मार्ग का पथिक माना जाता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि इस संसार में एकमात्र शरण धर्म है, इसके अतिरिक्त जीव की रक्षा कोई और नहीं कर सकता है । जरा-मरण-काम-तृष्णा आदि के प्रवाह में डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप का काम करता है। इसी धर्मरूपी द्वीप पर जीव शरण लेता हैं।" यही कारण है कि धर्म को आत्मकल्याण करने वाला माना गया है, क्योंकि इसमें स्वार्थ, ममता, राग, द्वेष आदि दुर्भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। इन सब दोषों से मुक्त व्यक्ति समस्त प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त हो जाता है और योनि-भ्रमण के दुःख से छुटकारा पा लेता हैं।
बोधि दुर्लभता के विषय में चिन्तन करना बोधि-दुर्लभ अनुप्रेक्षा है। इसमें यह चिन्तन किया जाता है कि जो बोध प्राप्त हुआ है उसका सम्यक् आचरण करना अत्यंत कठिन है । इस दुर्लभ बोध को पाकर भी सम्यक् आचरण के द्वारा आत्मविकास अथवा निर्वाण को प्राप्त नहीं किया तो पुनः ऐसा बोध होना अत्यंत कठिन है। बोधि प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर कार्य है क्योंकि यह केवल मानव पर्याय में ही प्राप्त किया जा सकता है और मानव पर्याय भी बड़ी कठिनता से मिलता है । इसीलिए कहा
खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२)
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