Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ में स्वीकार किया गया है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञा भी संस्कार जन्य ज्ञान है, पथा पूर्व में देखा गया घट जब पुनः कभी नेत्रों के सम्मुख आता है तब सदैव यह घट है, केवल इसी रूप में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता वरन् उससे सम्बन्धित जो पूर्व संस्कार हमारे अन्दर छिपे रहते हैं, उनके उद्बोधन के फलस्वरूप यह वही घट है । इसका भी भान होता है । "स" "स्व" प्रत्यक्ष में इस अंश के सामने उपस्थित घट की पूर्वदृष्टता विदित होती है जो उसे संस्कार से उत्पन्न न मानने पर सम्भव नहीं है । "मात्र" पद का इसके लक्षण में समावेश कर देने से प्रत्यभिज्ञा में इसके लक्षण की अतिव्याप्ति की संभावना नहीं रहती है । कतिपय विद्वानों ने स्मृति के दो भेदों का उल्लेख किया है, प्रथम अप्रमुष्ट विषया और द्वितीय प्रमुष्ट विषया । स्मृति सदैव अनुभव का सर्वाश में अनुवर्तन नहीं करती । स्मृति अनुभव का अतिक्रमण कभी नहीं करती, अनुभव में न आए विषय को कभी ग्रहण नहीं करती, फिर भी यदा कदा अनुभव के कुछ अंशों को छोड़कर भी उत्पन्न हो जाती है । यही प्रमुष्टाविषया स्मृति कही गयी है। इसका उदय उस स्थिति में होता है जब पूर्वानुभव द्वारा उत्पादित संस्कार के कुछ ही अंशों का उद्बोधन हो पाता है, कुछ का नहीं । अतः इस प्रवर पूर्वानुभव के पूर्ण और आंशिक अनुवर्तन के आधार पर अप्रमुष्ट विषया स्मृति उदित होती है । स्मति से भिन्न ज्ञान को अनुभव कहा जा सकता है । ज्ञान को दो भागों में विभक्त किया गया है । स्मृति और अनुभव । इसीलिए ''स्मतिभिन्नत्वे सति ज्ञानत्वम्"६ लक्षण किया गया है । अनुभव के इस लक्षण में “स्मृति भिन्नत्व" पद देने से स्मति से इसका पृथकत्व सिद्ध होता है । अनुभव भी यथार्थ और अयथार्थ के भेद से दो प्रकार का होता है । अर्थ के स्वरूप के विषय में होने वाला अनुभव यदि उसी रूप में होता है, बह यथार्थ अनुभव है। "यथार्थोऽर्थाविसंवादी"" अर्थात् अर्थ के अनुरूप ज्ञान यथार्थ है । घट के विषय में जब “यह घट है" ऐसा भान होता है तब इस ज्ञान में 'घटत्व" विशेषण है, अतः यह ज्ञान घटत्व प्रकारक कहलाता है । इस ज्ञान के विषय घट का हमें ज्ञान हो रहा है उसमें घटत्व विद्यमान है। अतः तद्वति-घटत्ववति=घटत्व से युक्त में, घटत्व प्रकारक अर्थात् घटत्व है विशेषण, जिसमें ऐसा ज्ञान होने के कारण यह यथार्थ अनुभव है। उपयुक्त वणित यथार्थ अनुभव से भिन्न ज्ञान अयथार्थ अनुभव कहलाता है। उदाहरणार्थ-दूर से देखने पर शुक्ति में यह अनुभव होता है कि "यह रजत है।" लेकिन जिस शुक्ति में इस प्रकार का अनुभव हो रहा है, उसमें रजत्व का अभाव है, लेकिन अनुभव में रजत्व विशेषण है । अतः रजत्व के अभाव वाली शुक्तिका में "रजत" का अनुभव होने से अयथार्थ अनुभव है । प्रत्यभिज्ञा स्मृति के द्वारा प्रत्यक्ष होने पर यह वही है अथवा उसके सदृश्य है तथा किसी अर्थ के प्रति “यह वही है।" इस प्रकार के ज्ञान का नाम संज्ञा है उसी को प्रत्यभिज्ञा कहते हैं । प्रत्यभिज्ञा भी संस्कार जन्य ज्ञान है ।' यथा-पूर्व में देखा गया देवदत्त जब २२० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160