Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 61
________________ जैन प्रमाण-मीमांसा में स्मृति प्रमाण राजवीरसिंह शेखावत यद्यपि जैन दार्शनिकों ने बौद्धों की तरह ज्ञान को प्रमाण माना है, जैसा कि कहा गया है, 'ज्ञानं प्रमाणम्, प्रमाणं ज्ञानम्' अर्थात् ज्ञान ही प्रमाण है. प्रमाण ही ज्ञान हैं किन्तु ध्यातव्य है कि बौद्धों तथा जैनों का प्रमाण या ज्ञान की अवधारणा में मतैक्य नहीं है । जैन दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान आत्मा का नित्य धर्म है' और जानना उसका स्वभाव है । शुद्ध आत्मा को ज्ञान के लिए किसी प्रकार के साधन या माध्यम की आवश्यकता नहीं रहती है, किन्तु आत्मा पर कर्मों का आवरण आ जाने से ज्ञान में न्यूनता आ जाती है, जिससे वह ज्ञान के लिए विभिन्न साधनों या माध्यमों पर अपेक्षित हो जाती है । ज्ञान के इन साधनों के विषय नियत है, जिसके कारण एक साधन दूसरे साधन के ग्राह्य विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है, जैसे चक्षु द्वारा रूप का ज्ञान होता है शब्द आदि का नहीं। ज्ञान के इन साधनों या माध्यमों में ज्ञानेन्द्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बा ह्यार्थ को जाना जाता है जो हमारे ज्ञान के विषयों का बहुत बड़ा भाग है। किन्तु हमारा ज्ञान ज्ञानेन्द्रियों एवं उनके विषयों तक ही सीमित नहीं है । ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान से हमारे मनस् में उस ज्ञान से सम्बन्धित संस्कार रह जाता है, जिसका समय-समय पर उद्बोधन होता रहता है जिससे पूर्व ज्ञान का स्मरण हो जाता है । संस्कारों के उद्बोधन से होने वाले ज्ञान को मनोवैज्ञानिक भाषा में 'स्मृति' कहा जाता है । यहां प्रश्न है कि क्या संस्कारों के उद्बोधन से होने वाले ज्ञान को, ज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है? ऐसा ज्ञान यथार्थ ज्ञान है या अयथार्थ ? क्या इसे प्रमाण माना जा सकता है ? यदि प्रमाण माना जाए तब उसके प्रमाण होने का आधार क्या है ? यह किसको विषय बनाता है तथा किसकी सत्ता को सिद्ध करता है ? इसका फल क्या है ? आदि । इन प्रश्नों के सन्दर्भ में सभी भारतीय दार्शनिकों के विपरीत जैन दार्शनिकों ने 'स्मृति' को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया तथा प्रमाण मीमांसा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । प्रश्न उठता है कि जैन प्रमाणमीमांसा में 'स्मृति' का स्वरूप क्या है ? स्मृति के स्वरूप को बतलाते हुए माणिक्यनन्दि' ने कहा कि पूर्व संस्कार की प्रकटता से होने वाला तथा 'वह देवदत्त' इस आकार वाला ज्ञान ‘स्मृति' है।" इस लक्षण को स्वीकार करते हुए वादिदेव सूरि ने पहले जाने हुए पदार्थ को जानने वाला' इस अश को और जोड़ते हुए स्मृति का लक्षण किया कि "संस्कार के जागृत होने से उत्पन्न होने वाला, पहले जाने हुए पदार्थ को जानने वाला, 'वह' इस आकार वाला ज्ञान ‘स्मृति' है, जैसे खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२) २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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