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कभी पुनः आंखों के सामने आता है, तब उसके विषय में “यह देवदत्त है" इतना ही परिचयात्मक प्रत्यक्ष नहीं होता अपितु देवदत्त के पूर्वदर्शन सम्बन्धी जो संस्कार डाल रखा है उसके उद्बुद्ध हो जाने से मात्र वेवदत्त का ही नहीं वरन् 'यह वही देवदत्त है" इस रूप में ज्ञान होता है। प्रत्यभिज्ञा में सम्मुख उपस्थित विषय की पूर्वदृष्टता भी विदित होती है । इसी कारण इसे संस्कार जन्य माना जाता है ।
प्रत्यभिज्ञा न स्मृति है और न अनुभव, वरन् यह तीसरे प्रकार का जिसे अनुष्णाशीत स्पर्श, उष्ण और शीत दोनों स्पर्शों से विजातीय स्पर्श के समान अस्मरणानुभवस्मृति और अनुभव दोनों ज्ञानों से विजातीय ज्ञान में माना जाता है इस रूप में बुद्धि अथवा ज्ञान तीन भेदों में विभक्त हो जाता है स्मृति, अनुभव और प्रत्यभिज्ञा इस क्रम से इनके लक्षण होंगे “संस्कार मात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः", 'संस्कारजन्यं ज्ञानं अनुभवः' 'संस्कारेन्द्रियोभय जन्यं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञा ।' अत एव जो ज्ञान संस्कार एवं इन्द्रिय दोनों से उत्पन्न हो उसे प्रत्यभिज्ञा कहते हैं । कुछ दार्शनिक लोकानुभव के आधार पर प्रत्य भज्ञा को अनुभव की श्रेणी में रख प्रत्यक्ष में उसका अन्तर्भाव मानते हैं। यह उचित नहीं है। प्रत्यभिज्ञा ज्ञान के दो भेद हैं---
१. एकत्वप्रत्यभिज्ञान २. सादश्यप्रत्यभिज्ञान ।
प्रथम के अन्तर्गत "वही यह है" इस प्रकार का ज्ञान होता है एवं "उसी के समान यह है" इस सादृश्यविषयक बोध सादृश्यप्रत्यभिज्ञा कही जाती है । ',वही" से अतीत काल के विषय को ग्रहण किया जाता है ।
जिस प्रकार शुक्ल शंख में होने वाला पीत ज्ञान शुक्लशंख में ही हुए शुक्लज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा बाधित हो जाने से अप्रमाण है किन्तु पीतवर्ण के सुवर्णादि में होने वाला पीतज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है इसी प्रकार अपने उसी पुत्र में ही “यह उसके समान है।" इस प्रकार का होने वाला सादृश्यविषयक ज्ञान "वही यह है" इस एकत्वविषयक प्रत्यभिज्ञा से बाधित होने से अप्रमाण है, किन्तु अपने पुत्र के समान ही किसी दूसरे के पुत्र में 'वैसा ही यह है ।" इस प्रकार का होने वाला प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नहीं है किसी अन्य ज्ञान से बाधित न होने के कारण ।
निष्कर्ष यह है कि जिस-जिस ज्ञान से वस्तु को जानकर उसमें प्रवृत्त हुए पुरुष को अर्थक्रिया में किंचित् भी विसंवाद नहीं होता वह ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान के समान प्रमाण है । इसी प्रकार स्मरण और प्रत्यभिज्ञान से विषय को ज्ञात कर प्रवृत्त हुए पुरुष को विसंवाद नहीं होता अतः दोनों प्रमाण हैं तथा अविशद होने से वे परोक्ष हैं, जैसे अनुमान ।
सन्दर्भ सूची
१. अविशदः परोक्षम् । प्र० मी० अ० आ० २, सू० १ ।।
खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२)
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