Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 56
________________ राजस्थानी भाषा मार्गदर्शन कर सकती है। भले ही लोग उसे हिन्दी के सन्निकट बतलावें । आपने अपनी रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्दों का पूरी छूट के साथ प्रयोग किया हैं, जैसा कि भारत की अन्य आधुनिक आर्य भाषाओं अर्थात् हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि के साहित्यकार करते हैं। इसी कारण उनका साहित्यिक स्वरूप बन पाया है और वे सभी प्रकार के सूक्ष्म भावों तथा गंभीर विचारों को प्रकट करने में समर्थ हैं। इसके बिना वैज्ञानिक एवं दार्शनिक विषयों का विवेचन होना संभव भी नहीं । इसी ताकत पर उनका स्कूली एवं कालेज पाठ्य पुस्तकों में सहजप्रवेश हो पाया हैं और अपने अपने क्षेत्र में लोकप्रिय ही नहीं, समादृत भी हैं। आचार्य श्री तुलसी का राजस्थानी के प्रति इतना गहरा लगाव जैन समाज की पुरानी परम्परा के साथ जुड़ा हुआ है, जिसमें लोकभाषा के साथ-साथ लोकधुनों अर्थात् "देशियों" को भी पूरा महत्व दिया गया है। जन साधारण में शीलधर्म का प्रचार करने हेतु जनवाणी का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक है, जिसके अभाव में कवि-कोविदों का प्रयास भी सफल नहीं हो पाता। राजस्थानी राजस्थान की लोकभाषा है। उसका दैनिक जीवन में अनेक बोलियों के रूप में, साहित्यिक क्षेत्र में समर्थ एकरूप में प्रयोग होता रहा है । वह सर्व-साधारण के लिए सुबोध भी है । उसके पास अपार साहित्यसम्पत्ति है, जो अद्यावधि किसी प्रकार सुरक्षित भी हैं । इस संरक्षण में नैन-समाज का सदा से ही विशेष योगदान रहा है। वह अभिनंदनीय है। __ अब यह वांछनीय हैं कि जैन विश्व भारती जैसे व्यवस्थित एवं समर्थ संस्थान में राजस्थानी साहित्य के अध्ययन, अनुसंधान एव प्रकाशन हेतु एक पूरा विभाग स्थापित किया जाए, जिससे कि राजस्थान के जैन-साहित्य के साथ-साथ राजस्थानी भाषा के साहित्य का भी समग्र विकास होने का एक सुन्दर तथा उपयोगी साधन सर्व-साधारण के सामने प्रकाशमान हो । ध्यान रखना चाहिए कि अद्यावधि राजस्थानी जैन साहित्य का पूरा लेखा-जोखा भी नहीं हो पाया हैं । अन्य कई स्थानों पर यह कार्य आंशिक रूप में हो रहा है, परन्तु जैन विश्व भारती को भी इस दिशा में आगे आने की नितान्त आवश्यकता है । आशा की जाती हैं कि इस दिशा में भी यह समादत संस्थान पीछे नहीं रहेगा, जिसे आचार्यश्री तुलसी का आशीर्वाद प्राप्त है। "भी भा रा ज म मा डा कालू, गुरू अष्टक दृग-सोड़ शयालू ! 'तुलसी' सदा-सदा आभारी, सद्गुरू चरण-कमल बलिहारी !!" २१८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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