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जैसे संस्कृत शब्दों को तोड़कर कहीं भी विद्रूप नहीं बनाया है ।
इन सब छोटी-मोटी बातों को छोड़कर आचार्यश्री की भाषा के संदर्भ में एक विशेष तत्व पर जरा विस्तार से चर्चा करना आवश्यक है और वह है, राजस्थानी भाषा के वर्तमान माहित्यिक स्वरूप के सम्बन्ध में उठाई जाने वाली विचित्र समस्या, जिससे आज का राजस्थानी साहित्य-जगत् किसी अंश में चिन्तित है।
वर्तमान में राजस्थानी भाषा साहित्य के विकास और प्रचार-प्रसार हेतु अनेक संस्थाएं स्थापित हैं । केन्द्रीय साहित्य अकादमी (नई दिल्ली) में राजस्थानी का भारत की अन्य प्रान्तीय भाषाओं के साथ पूरा सम्मान है और वह भारत की एक साहित्यिक भाषा के रूप में समाहृत है । राजस्थान के विश्वविद्यालयों में राजस्थानी भाषा-साहित्य के अध्ययन की यथाविधि व्यवस्था हैं । बड़ी संख्या में आज राजस्थानी कवि-लेखक प्रतिष्ठापित हैं और गद्य तथा पद्य की विविध विधाओं में महत्वपूर्ण प्रकाशन सामने आ रहे हैं । बीकानेर में राजस्थानी भाषा की स्वायत्त-शासी अकादमी भी स्थापित है । छोटे-बड़े समारोह भी इस विषय में बराबर आयोजित होते ही रहते हैं । इतना सब होने पर भी लोगों के सामने एक सवाल कई बार उपस्थित होता है कि वर्तमान राजस्थानी भाषा का साहित्यिक स्वरूप क्या है ?
अवश्य ही यह सवाल ध्यान देने योग्य है यद्यपि वर्तमान राजस्थानी भाषा का एक सुन्दर और सुबोध साहित्यिक स्वरूप मौजूद है परन्तु अनेक राजस्थानी रचनाकार इस दिशा में एकमत नहीं है और उनके हृदय में अपनी मातृभाषा राजस्थानी के प्रति उत्कट प्रेम होने पर भी वे अपनी आंचलिक बोली के प्रति न्यूनाधिक मात्रा में मोहग्रस्त हैं। फलस्वरूप उनकी रचनाओं में भाषागत एक रूपता का अभाव रहता है। मेवाड के लेखक की राजस्थानी, बीकानेर के पाठक के लिए सर्वथा सुबोध प्रतीत नहीं होती। इसी प्रकार जयपुर के राजस्थानी रचनाकार की भाषा, मारवाड़ के पाठक के सामने दुर्बोध रहती है । हाडौती क्षेत्र का लेख शेखावाटी के पाठकों द्वारा कठिनाई से पढ़ा अथवा समझा जाता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न अंचलों में विरचित राजस्थानी साहित्य का समग्र राजस्थान में समुचित उपयोग नहीं हो पाता । सभी प्रांतीय भाषाओं की अपनी-अपनी बोलियां है । यही स्थिति राजस्थानी भाषा की भी है। उसकी भी मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाती, बागड़ी आदि अनेक बोलियां है और वे सभी स्थानीय जनता के द्वारा बोलचाल में बड़े चाव से प्रयुक्त होती हैं, परन्तु समग्र राजस्थान के लिए एक सरल, सुबोध और व्याकरण-सम्मत साहित्यिक राजस्थानी भाषा का स्वरूप सामने होना आवश्यक है, जिसे संपूर्ण राजस्थान के साहित्यकार कम से कम अपनी गद्यात्मक रचनाओं में तो प्रयुक्त करने में कोई संकोच न करें और जो राजस्थान के निवासी पाठकों के साथ-साथ प्रवासी राजस्थानी पाठकों के लिए भी सहज सम्प्रेषणीय हो।
इस दिशा में कई बार सम्मेलन भी हो चुके हैं और उनमें कवि-लेखकों ने अपने अपने सुझाव भी दिए हैं। परन्तु वे प्रयोग में नहीं आ पाए हैं और राजस्थानी भाषा की एकरूपता का प्रश्न अभी खड़ा ही है। ऐसी स्थिति में आचार्यश्री तुलसी की
खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२)
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