________________
नामक स्थान से प्राप्त हुई थी। इस प्रतिमा के छत्र के दोनों पावों में भी अभिषेकी गज द्रष्टव्य हैं ।
बीकानेर-संग्रहालय में एक ऐसा परिकर है जिसकी तीर्थंकर प्रतिमा अब उपलब्ध नहीं है। १२वीं शताब्दी ई० में निर्मित इस परिकर में नीचे से क्रमशः चामरधर, उड़ते हुए विद्याधर-दम्पति अपनी लटकती सूंड में पद्म-कलिका पकड़े हुए गज दोनों पावों में अब भी अवशिष्ट हैं। इन सबसे ऊपर दुन्दुभि बजाता हुआ एक देवदूत भी है।
तीर्थंकर प्रतिमाओं के साथ अभिषेकी गजों की उपस्थिति प्रस्तर के साथ-साथ धातु से निमित प्रतिमाओं पर भी पाई गई हैं। पश्चिमी भारत से प्राप्त और १५वीं शताब्दी ई० में निर्मित विमलनाथ की एक कांस्य पंचतीर्थक प्रतिमा इस समय अमरिका के लॉस एन्जीलिस काउण्टी म्यूजियम ऑव आर्ट में संग्रहीत है । मध्यप्रदेश से प्राप्त विक्रम संवत १११४ (१०५७ ई०) की तिथि वाली अभिलेखयुक्त ऋषभनाथ की एक कांस्य प्रतिमा नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय (सं० सं० ७०.४२) में है।९ सालारजंग संग्रहालय, हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) में भी वि० सं० १४५३ (१३९६ ई.) की तिथि से युक्त अभिलेख वाली एक कांस्य पंचतीर्थक प्रतिमा है।" इसी प्रकार महाराष्ट्र के मुदबिदरी नामक स्थान से उत्तर मध्यकालीन धातु की एक मेरु प्रतिमा मिली है जिसमें बैठी मुद्रा में तीर्थंकर प्रतिमा भी है। इन सभी धातु प्रतिमाओं के परिकर में भी अभिषेकी गज पाए गए हैं।" इनके अतिरिक्त भी अनेक तीर्थंकर-प्रतिमाएं और उनके परिकर विभिन्न संग्रहालयों में मौजूद हैं जिनमें ऊपर की ओर गजों की उपस्थिति है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि तीर्थंकरों की इन प्रतिमाओं पर ये गज क्यों हैं ? क्या इन गजों की उपस्थिति का कोई शास्त्रीय अथवा धार्मिक आधार भी है ? जैन प्रतिमा-लक्षणों के विश्लेषण से इन प्रश्नों का कोई समाधान नहीं प्राप्त होता है । हां, जिन-माता त्रिशला के चतुर्दश मांगलिक स्वप्नों में एक हाथी भी है। कतिपय जैन ग्रन्थों के आधार पर द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का लांछन भी गज है। किन्तु इनसे तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के परिकर में गजों की उपस्थिति का कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता है ।
जैन परंपरा के अनुसार तीर्थंकरों में कुछ विशेष गुण होते हैं जिन्हें 'अतिशय' कहा गया है। समवायांगसूत्र के अनुसार 'अतिशयों' के अन्तर्गत परिकर के रूप में अष्टमहाप्रातिहार्यों की भी गणना है । ३२ श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों संप्रदायों की तीर्थकर-प्रतिमाओं के पूर्ण विकसित परिकर में अष्ट महाप्रतिहार्यों पर विशेष जोर दिया जाने लगा था। इन अष्टमहाप्रतिहार्यों के अन्तर्गत दिव्यतरु, सुरपुष्पवृष्टि, दुन्दुमि, आसन, छत्र, चामर, तेजमण्डल और दिव्य ध्वनि का परिगणन किया गया है
२०२
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org