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किन्तु यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित ही रहा कि तीर्थकर की प्रतिमा के साथ अभिषेकी गजों का संसर्ग कैसे और क्यों स्थापित हुआ, क्योंकि उपरोक्त शिल्पग्रन्थों में गजों का उल्लेख तो है किन्तु अभिषेकी गजों का नहीं। इस सन्दर्भ में तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों का उल्लेख आवश्यक है। पंचकल्याणकों में च्यवन (गर्भ), जन्म, दीक्षा, कैवल्य तथा निर्वाण की गणना है जो प्रत्येक तीर्थकर के जीवन के महत्त्वपूर्ण और मांगलिक अवसर हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इन सभी मांगलिक अवसरों पर अपने दिव्य गज ऐरावत पर सवार इन्द्र तीर्थंकर के अभि सिंचन के लिए उपस्थित होते हैं ।
__ अभिषेक का तात्पर्य, पवित्र जलामिसिंचन होता है और गज बादलों तथा जल के प्रतीक माने गए हैं। लक्ष्मी-प्रतिमा में अभिषेकी गजों की परंपरा बड़ी पुरानी है और इस परंपरा से जैन शिल्पी भी चिर परिचित थे। अस्तु उन्होंने तीर्थंकर प्रतिमाओं पर भी इन्द्र द्वारा किए जाने वाले अभिषेक का रूपांकन परंपरा से चले आ रहे लक्ष्मी वाले अभिषेकी गजों के माध्यम से प्रस्तुत कर दिया। जैन शास्त्रों के अनुसार इन अभिषेकी गजों के पीछे ऐरावत पर बैठे इन्द्र द्वारा तीर्थकर का अभिषेक भले ही बताया जाय, परन्तु वास्तव में यह लक्ष्मी-प्रतिमा के अभिषेकी गजों का अनुकरण मात्र है।
मानसार तथा रूपमण्डन में तीर्थंक र प्रतिमाओं के परिकर में गजों का उल्लेख तो है, पर उन्हें स्पष्ट तौर पर अभिषेक करते हुए नहीं बताया गया है। अधिकांश प्रतिमाओं में तो गजों को अभिषेक मुद्रा में ही अंकित किया गया है, परन्तु कतिपय अन्य प्रतिमाओं पर उनकी सूडें नीचे लटकती हुई अथवा पद्म-कलिकाएं पकड़े हुए दिखाई गई हैं । पर, इससे यह तात्पर्य कदापि नहीं कि वे गज अभिषेक के निमित्त नहीं हैं । क्योंकि इसी प्रकार के कतिपय उदाहरण हमें लक्ष्मी-प्रतिमाओं में भी मिले हैं जहां गजों को अभिषेक मुद्रा में नहीं दिखलाया गया है। उदाहरण के लिए महाबलीपुरम् की शिला पर उत्कीर्ण लक्ष्मी का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें एक गज की सूंड नीखे को लटकती उकेरी गई है।
सन्दर्भ एवं पाद-टिप्पणी १. द्रष्टव्य एस० के० दीक्षित, ए गाइड टु द स्टेट म्यूजियम धुबेला, नौगांग (बुन्देल
खण्ड), १९५५-५७, पृ० १३, फलक ३ । २. वही, फलक १ ए और १ बी । ३. द्रष्टव्य प्रमोदचन्द्र, द स्टोन स्कल्पचर इन द इलाहाबाद म्यूजियम, बम्बई,
१९७०, कैटेलॉग सं० २८७, पृ० ११५, फलक १०१। ४. ए० घोष (संपादक), जैन आर्ट ऐण्ड आर्कीटेक्चर, दिल्ली, १९७५, वाल्यूम ३,
पृ० ५८५ । ५. वही, पृ० ५८६, फलक ३७० बी। ६. वही, पृ० ५८६, फलक ३७१ ए और बी। २०४
तुलसी प्रज्ञा
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