Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 35
________________ ८. अन्तो इमं सरीरं अन्तो हं, बंधवा विभे अंते ॥ ९. हा अत्था कामा य हुंति देहो य सव्वमणुयाणं । एओ चेव सुभो वरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥ १०. ईसा विसाय-मय- कोह- लोह - दो से हिं देवा वि समभिभूया तेसू वि य कओ सुहं १५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ११५ - ११८ १६. तत्त्वार्थ सूत्र, ३१- ६ १७. एक्को हु धम्मो नरदेव । ताणं न विज्जइ अन्नमिहेह किंचि ॥ १८. सूत्रकृतांग, २।१।१ - मरणविभति, ५९० १४. धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल -जंतवो । एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहि । ११. मरणविभत्ति, ६२०,६२१ १२. भावना योग, ले० - आत्मारामजी, पृ० ४८ १३. तवसा विणा णा मोक्खो संवर मित्ण होइ कम्मस्स | उवभोगादी हिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं ॥ - भगवती आराधना, ८०७ एवमाई हि । अस्थि ? || -मरणविभत्ति, ६११ खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० - दिस०, ९२ ) Jain Education International - भगवती आराधना, १८४० - उत्तराध्ययन सूत्र, २८०७ — उत्तराध्ययन सूत्र, १४ ४० चार अनुप्रेक्षाएं धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहागाणुप्पेहा, अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा । अर्थात् अकेलेपन का चिन्तन, पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन, अशरणदशा का चिन्तन और संसार परिभ्रमण का चिन्तन | धर्म्यध्यान की ये चार अनुप्रेक्षाएं होती हैं । – ठाणं (४.६८) For Private & Personal Use Only १९७ www.jainelibrary.org

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