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के लिए अनुप्रेक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। इसे भावना के नाम से भी जाना जाता है। अनुप्रेक्षा का अर्थ होता है किसी भी विचार का बार-बार चिन्तन करना। किसी भी वस्तु का बार-बार अभ्यास करने से उसके विषय में सम्यक् रूप से जानकारी प्राप्त हो जाती है और किसी प्रकार की गलती की संभावना अत्यंत कम हो जाती है । अनुप्रेक्षा में शुभ विचारों का बार-बार चिन्तन किया जाता है। इससे व्यक्ति का आत्मविकास होता है और वह समस्त दुःखों से मुक्त होकर परम सुख को प्राप्त कर लेता है।
भावना के महत्त्व पर प्रकाश डालते हए 'साकृतांग' में कहा गया है कि भावना से शुद्ध आत्मा वाला पुरुष जल में स्थित नौका के समान है, जिस प्रकार किनारे को प्राप्त कर नौका विश्राम करती है उसी प्रकार पुरुष भी भावना रूपी नौका के सहारे तट को प्राप्त कर सर्व दूखों से मुक्त होकर विश्राम करता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है- उत्तम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है वह पुरुष संसार के स्वभाव को छोड़कर जल में नाव की तरह संसार-सागर के ऊपर रहता है । जिस प्रकार नौका जल में नहीं डूबती है, उसी तरह वह व्यक्ति भी संसार-सागर में नहीं डूबता है । जिस प्रकार उत्तम कर्णधार से युक्त और अनुकूल पवन-वायु से प्रेरित नाव सर्व द्वंद्वों से मुक्त होकर तट को प्राप्त कर लेती है ठीक उसी तरह उत्तम चारित्र से युक्त जीवरूपी नौका उत्तम आगमरूप कर्णधार से समन्वित तथा तपरूपी पवन से प्रेरित हो दुःख प्रचुरात्मक संसार से छुटकारा पाकर समस्त दुःखों के अभावरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेती है।
यह संसार एक भयानक जंगल है जो अनादि एवं अनंत है । देव, मनुष्य, नारक और तिथंच रूप चार गतियां इसके अवयव हैं। ऐसे भयानक संसार रूपी वन को अनुप्रेक्षा या भावना के द्वारा पार किया जा सकता है । भावना या अनुप्रेक्षा के चिन्तन करने से मानव का आत्मिक विकास होता है और वह चरमपद प्राप्त करने की सामर्थ्य से युक्त हो जाता है । जैन आचार का प्रतिपादन करने वाले (श्वेताम्बर एवं दिगम्बर) ग्रन्थों में इस विषय पर समान रूप से चिन्तन हुआ है। अनुप्रेक्षा पर विचार करने वाले कुछ प्रमुख ग्रन्थ हैं-आचारांग, दशवैकालिक, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, कात्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्त्वार्थसूत्र, ज्ञानार्णव आदि । इसकी कुल संख्या बारह मानी गई है'-१ अनित्यानुप्रेक्षा, २. अशरणाणुप्रेक्षा, ३. संसागणप्रेक्षा, ४. एकत्वाणुप्रेक्षा, ५. अन्यत्वाणुप्रेक्षा, ६. अशुचिअणुप्रेक्षा, ७. आस्रवाणुप्रेक्षा, ८. संवराणुप्रेक्षा, ६. निर्जराणुवेक्षा, १०. लोकायुप्रेक्षा, ११. धर्माणुप्रेक्षा और १२. बोधि अणुप्रेक्षा।
अनित्याणुप्रेक्षा संसार की अनित्यता का बोध कराती है। अनित्य का अर्थ है कि कोई भी वस्तु नित्य नहीं है, शाश्वत नहीं है, प्रत्येक वस्तु नाशवान है । जो नष्ट हो जाने वाला है उसके प्रति किसी तरह का मोह रखना व्यर्थ है । यह संसार ही जब अनित्य है तो इस संसार में रहने वाली सभी वस्तुएं अनित्य हैं, नाशवान् हैं। इनके प्रति किसी तरह का ममत्व नहीं रखने में ही भलाई है। क्योंकि इससे हमारी आसक्ति इनके प्रति बढ़ेगी और हम संसार के बंधन में जकड़ते चले जाएंगे और दुःख की पीड़ा १९०
तुलसी प्रज्ञा
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