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को अनंत काल तक भोगते रहेंगे ! उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि संसार की सभी वस्तुएं (शरीर, धनादि) अनित्य है, इनके प्रति किसी तरह का मोह नहीं रखना चाहिए क्योंकि यह बंधन को दृढ़ करता है। हमें जितने भी दुःख, क्लेश आदि के संताप को भोगना पड़ता है उन सबका मुख्य कारण हमारा यह अशाश्वत, क्षणभंगुर, नाशवान् शरीर ही है। दुःखरूपी इस अनित्य शरीर के प्रति अपने मोहासक्ति का त्याग करने से ही हमारा कल्याण हो सकता है। अतः व्यक्ति को अनित्य वस्तुओं के प्रति अपने ममत्व का त्याग करके आत्मकल्याणरूपी पथ पर अग्रसर हो जाना चाहिए।
मरणादि के भय से व्याप्त संसार में रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करने की कला को अशरण अनुप्रेक्षा कहा गया है। मनुष्य अपने कर्मबंध के परिणाम के कारण अशरण है । क्योंकि आत्मा कर्मों के कारण ही बंधन में पड़ती है। कर्मावरण ही इसके अनंत चतुष्ट्य रूप का धात करते हैं। जीव के कषायरूप प्रवृत्ति के निमित्त को पाकर उसके कर्मों की स्थिति दीर्घ हो जाती है। प्राप्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इसके सहकारी कारण बन जाते हैं। जब वे कर्म अशुभ फल देते हैं तो जीव को इसे भोगना ही पड़ता है । कोई भी उसे इससे नहीं बचा सकता है । मरणविभक्ति में कहा भी गया है कि कर्मों के उदय के फलस्वरूप जन्म-जरा-मरण-रोगचिन्ता-भय-वेदना आदि दुःख उत्पन्न होते हैं, उन्हें जीव को भोगना ही पड़ता है। विविध प्रकार के मांगलिक कार्य, तंत्र-मंत्र, पुत्र-मित्र, बंधु-बांधव व्यक्ति को इसके संताप से नहीं बचा सकते हैं । जीव को, आने वाली मृत्यु के मुख में जाना ही होगा।' जब जीव को कोई शरण नहीं दे सकता है, इस संसार में जो दुःख है उनसे उसे कोई त्राण नहीं दिला सकता है, तो संसार में जो इतने सम्बन्ध हैं उनके प्रति चिन्ता करना व्यर्थ है । जब व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगना ही है तो क्यों न सुकर्म ही किए जाए जिससे कि उसका कल्याण हो सके।
संसार दुःखों से परिपूर्ण है। इस संसार में जो सुख हैं, वे भी दुःख के कारण बनते हैं। संसाराणुप्रेक्षा के चिंतन करने से व्यक्ति इस तथ्य से भलीभांति परिचित हो जाता है तथा सांसारिक सुख-दुःख से उदासीन होकर परमसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील हो जाता है । कहा भी गया है कि इस संसार में सर्वत्र दुःख का साम्राज्य है । इनसे कोई भी जीव नहीं बच सकता है । कभी उसे शारीरिक कष्ट भोगना पड़ता है, तो कभी मानसिक क्लेश, कहीं मानव को स्त्री-पुत्र के मोह का दुःख है तो कभी वह धन-वियोग के कारण दुःखी रहता है। कभी मानव को मृत्युरूपी दुःख की वेदना झेलनी पड़ती है तो कभी उसे जरारूपी शत्रु का सामना करना पड़ता है। दुःख की इस दुरवस्था का चित्रण संसार भावना में बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है । व्यक्ति इसे समझकर इनसे बचना चाहता है। इसके साथ ही साय उसे संसार के अन्यान्य प्राणियों के दुःखों के बारे में भी जानकारी रहती है, अतः जब कभी भी उसके सम्मुख उसका स्वयं का अपना दुःख प्रकट होता है तब वह इसे अन्य के दुःखों के साथ तुलना करता है। इससे उसका अपना दुःख कम मालूम पड़ने खंड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ६२)
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