Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ घने कोहरे के समय ३५°---४०° सी० तापमान में सूर्य के दो घेरे दीख पड़ते हैं । हो सकता है, ये दृश्य विपरीत दिशा में स्थित सूर्य के प्रतिबिम्ब से पड़ते हों। ऋग्वेद (४५०.४) में- "बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन्" और तैत्तिरीय संहिता (३.१.१५) में लिखे– 'बृहस्पतिः प्रथमं जायमान तिष्यं नक्षत्रमभिसंबभूव"- वाक्यों में बृहस्पति को अनन्ताकाश का प्रथम नक्षत्र कहा गया है । ऋग्वेद (१०.१४.११) में उसे यमगृह का रक्षक श्वान बताया गया है । तदनुसार ही आज भी बृहस्पति सौर जगत् का सबसे बड़ा ग्रह है और सूर्य के समान हाइड्रोजन आदि गैसों से बना है जबकि शुक्र आदि दूसरे ग्रह ठोस हैं। इसी प्रकार भूभ्रमण और ध्रुव की निश्चलता, गुरूत्वाकर्षण और उसका केन्द्र, ब्रह्मांड का आकार-प्रकार आदि की स्थिति-परिस्थिति पर दिव्य दृष्टि सम्पन्न ऋषि महर्षि और आचार्यों ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। उन्हें सोचने-समझने की आवश्यकता है । भौतिक प्रयोगों से आध्यात्मिक ज्ञान को नकारने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है क्योंकि प्रादिनूतन, आदिनूतन, मध्यनूतन, अतिनूतन, प्रतिनूतन, सर्वनूतन प्रयोग कमी भी परिपूर्ण नहीं होंगे। इसके विपरीत जैसे दो पीढ़ी पूर्व चूरू के पं० चौमाल ने उत्तरीदक्षिणी ध्रुवों के परिचालन और पंडित प्रवर प्यारेलाल जैन ने जैन भूगोल को समझने के लिए नई दृष्टि दी वैसे ही प्रयास करणीय हैं । आगम निगमादि में उल्लिखित सिद्धांतों को भी विविधानेक उपायों से उद्घाटित करने की अपेक्षा है। यस्मात्परम् नापरमस्ति किञ्चित् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोस्ति कश्चित् । वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत् एकस्तेनेद पूर्णं पुरूषेण सर्वम् ।। -श्वेता० उपनिषद् (३.६) १७६ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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