Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 21
________________ पाण्डुलिपि-परिचय पूना भण्डार की इस प्रति में कुल २८ पन्ने हैं। प्रत्येक पृष्ठ पर लगभग १४ पंक्तियां हैं एवं प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४० शब्द हैं । प्रति की स्थिति अच्छी है। किन्तु प्रति की भाषा काफी विकसित (अशुद्ध) है । संयुक्त अक्षरों को प्रायः सरल अक्षरों में ही लिखा गया है । यथा-अत्थि=अथि, तत्थ तथ, जत्थ =जथ, हुत्तो हुतो, पिच्छेइ= पिछेइ इत्यादि। पांडुलिपि में ग्रंथ को चार भागों में विभक्त किया गया है। मल यसुंदरी के जन्म-वर्णन तक की कथा १३० गाथाओं तक वर्णित है । इसे प्रथम स्तवक कहा गया है।' इसके बाद उसका यौवनवर्णन किया गया है। आगे ३८३ गाथाओं तक मलयासुंदरी के पाणिग्रहण का वर्णन है । इसे द्वितीय स्तवक कहा गया है । इसके आगे की गाथाओं में ५२७ वी गाथा तक महाबल एवं मलय सुंदरी के अपने नगर एवं गृह में प्रवेश करने का वर्णन है। इसे तृतीय पड़ल कहा गया है । अंतिम चतुर्थ स्तवक को चतुर्थ पडल कहा गया है, जो ७९७ वी गाथा पर समाप्त हुआ है। इसमें मलया के शिवपद की प्राप्ति तक की कथा वर्णित है । इस तरह यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना मूल प्राकृत मलयसुन्दरिचरियं का संक्षिप्त रूप है। क्योंकि मूल ग्रन्थ में लगभग १३०० प्राकृत गाथाए हैं, जबकि इसमें कुल ७९७ गाथाएं हैं। प्रस्तुत पांडुलिपि की प्रशस्ति में इसकी रचना या लेखन समय सं० १६२८ चैत वदी १ सोमवार दिया हुआ है । इससे यह पांडुलिपि विशेष महत्त्व की हो गई है। कवि-परिचय पांडुलिपि में जो चार स्तवक या पडल हैं उनमें दी गयी पुष्पिकाएं महत्त्वपूर्ण हैं । चारों में कवि ने अपने सम्बन्ध में कुछ नयी बातें बतायी हैं । इस सामग्री के आधार पर प्राकृत मलयसुन्दरी की रचना के कवि के सम्बन्ध में उसका निम्न परिचय स्पष्ट होता है। कविनाम ___इस रचना को लिखने वाले प्राकृत कवि ने अपने को हरिराज, कवि हरिराज, हरि कवि आदि कहा है । प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पडल की पुष्पिका लगभग सामान है । यथा सुश्रावक श्री हेमराजार्थ कवि हरिराज विरचिते ज्ञान रत्नोपाख्याने मलयासुन्दरीचरिते पाणिग्रहण वण्णयो नाम द्वीती स्तवकः समाप्तः। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ का कर्ता कवि हरिराज है। उसने प्रथम पुष्पिका में स्वयं को हरिराज एवं तृतीय पडल में हरी कवि' भी कहा है । अंतिम प्रशस्ति में हरीराज उच्चारण है ।' अन्त में हेमप्रभ आर्य नाम भी कवि के लिए या उसके गुरु के प्रयुक्त लगता है। हेमप्पहरिया कियं पडल ए सुक्खं चउहिंकारा/गा० ७६७ खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू०-दिस०, ९२) १८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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