Book Title: Tulsi Prajna 1992 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ दीख पड़ता है । मानो आधे मृदंग के ऊपर पूरा मृदंग रख दें - ऐसी आकृत्ति बनती है । इस लोकाकाश के भीतर जीव पुद्गलादि चेतन-अचेतन द्रव्य हैं और चौतरफ अनंताकाश अथवा अलोकाकाश में कुछ भी नहीं है । लोकाकाश की ऊंचाई १४ राजू और घनफल ३४३ राजू है । उसके अधोलोक में नीचे का पूर्व-पश्चिम विस्तार ७ राजू, मध्य में घटता हुआ एक राजू और पुनः ऊपर बढ़ता हुआ ५ राजू होकर शीर्ष पर एक राजू होता है । यह घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक तीन वलियों से वेष्टित है । मध्यलोक के नीचे रत्न, शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम और महातम नाम के सात भाग हैं । मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । ये सभी द्वीप थाली अथवा चूड़ी के समान गोल हैं । केन्द्र में परस्पर एक दूसरे को वेष्टित किए पुष्कर, पुष्करोद, वरूणोद, क्षीरवर, धृतोद नदीश्वर और स्वयंभूरमण द्वीप समूह है । द्वीप समूहों के मध्य में सुमेरू पर्वत है जिनके चौतरफ कर्म-अकर्म भूमियां हैं। मनुष्यलोक और तिर्यक् लोक आदि सब उसी में अवस्थित हैं । ऊर्ध्वलोक में १२ अथवा १६ स्वर्ग हैं । उनमें कल्पवासी देवदेवियां रहती हैं । शीर्ष पर सिद्धों का निवास है । ऐसी मान्यता है । इसी प्रकार जैन मतानुसार आकाश द्रव्य सर्वाधिक विस्तृत है और शेष पांच द्रव्य-धर्म, अधर्मं, पुद्गल, जीव और काल उसके छोटे से भाग में अवस्थित हैं । अर्थात् विस्तृत विशुद्ध आकाश के केन्द्र में नगण्य विस्तार वाला लोक स्थित है जो कमर पर हाथ रखकर तथा पैर फैला कर खड़े पुरुष के समान दीख पड़ता हैवैशाखस्थः कटोन्यस्तहस्तः स्याद्यादेशः पुमान् । तादृशं लोक संस्थानमानन्ति मनीषिणः ॥ - ( हरिवंश ४1८; महापुराण ४।४२ ) किन्तु व्याख्या प्रज्ञप्ति (४२० ) में इसे सुप्रतिष्ठक शरयन्त्र ( तूणीर) के समान बताया गया है— लोएणं भंते कि संठिए । गोमा सुइट्ठग संठिए लोयं पण्णत्ते ॥ २. बौद्ध परम्परा में पांच स्कन्द-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान मात्र प्रवाहरूप कहे गए हैं । महात्मा बुद्ध से इस सम्बन्ध में बारंबार पूछा गया किंतु उन्होंने इस प्रसंग को अव्याकृत प्रश्नों के रूप में अनुत्तरित ही छोड़ दिया । संभवतः उन्हें सृष्टि प्रपंच स्पष्ट नहीं हुआ । पौराणिक सृष्टि-विवरण में प्रकृति महत्, अहंकार और महाभूत् एवं तन्मात्राओं का एक दूसरे में संप्लव - ( आविभाव- तिरोभाव ) होने का विस्पष्ट व्याख्यान है । वैदिक परम्परा में हिरण्यगर्भ द्वारा पृथिवी को धारण करने तथा ऋत् सत् द्वारा उसे यथापूर्व सृजन होते के साथ प्राकृत- वैकृत सर्ग आदि का विवरण प्राप्त है । एक ब्रह्म, त्रिदेव, पंचदेव, नारायण, शेषनाग आदि परम्पराएं भी विशदीकृत हैं जिन्हें यहां व्याख्यायित करना अभिप्रेत नहीं है किन्तु यह बात स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सिसृक्षु ब्रह्म की तीन अवस्थाएं होती हैं । सृष्टि पूर्व वह अव्यक्त रहता है, सृष्टि निर्माण की इच्छा होने पर हिरण्यगर्भ रूप से हिरण्याण्ड गर्भित १७४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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