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सष्टि विज्ञान में जैन उल्लेखों का महत्त्व
0 डॉ० परमेश्वर सोलङ्की
महामहोपाध्याय पं० गोपीनाथ कविराज का परलोक-गमन १२ जून, १९७६ को हुआ । वे एक विलक्षण पुरूष, महान् तत्त्व चिंतक और तपोवल विशिष्ट मनीषी थे । उनका सारा जीवन साधनामय था । अपने गुरुदेव के आज्ञानुसार उन्होंने न तो किसी को मन्त्रोपदेश किया और न ही किसी गोपनीय विषय का प्रकटीकरण ही किया; किंतु डॉ० भगवतीसिंह ने "मनीषी की लोक यात्रा" में उनके जीवन में घटी अनेकों बातें प्रकाशित की हैं जो उनके द्वारा प्रमाणित भी कर दी गई। इस ग्रन्थ में डॉ० भगवती सिंह ने ६१ विशिष्ट व्यक्तियों के साथ कविराज के सत्संग का उन्हीं के शब्दों में विवरण प्रकाशित किया है। उसमें एक विवरण पन्द्रह-सोलह वर्ष के बालक केदार मालाकर का है जो बनारस के बंगाली टोला हाईस्कूल में पढ़ते थे । उस बालक से वे १० अक्टूबर १९३७ को मिले, फिर कई बार मिलते रहे । कविराज द्वारा लिखा उस सत्संग का एक प्रसंग इस प्रकार है--
"एक दिन मैंने इनसे कहा-'तुम अभी किसी लोक में जाकर देख आओ और हमसे वहां का वृत्तांत बताओ। विश्व के बाहर जाकर विश्व की ओर दृष्टि दो, फिर बताओ, क्या दिखाई पड़ता है ?' वे बोले-'थोड़ा ठहरिए ! मेरे शरीर की तरफ लक्ष्य रखिए।' यह कह कर वे शरीर से निकल गए । दो तीन मिनट के बाद पुनः शरीर में चेतना का अनुभव हुआ। वे लौट आए और बोले....'मैं देख आया। समस्त विश्व ऐसा दिखाई पड़ता है जैसे एक मनुष्य खड़ा है, हाथ फैलाए हुए क्रॉस की भांति ।' मैंने सोचा, उपनिषदों में निर्दिष्ट यही वैश्वानर विद्या है। जैनाचार्यों का भी ऐसा ही मत है।"
आगे इसी विवरण में कविराज ने केदार मालावर के २१ वर्षीय जीवन की अनेकों घटनाएं लिखी हैं। माता आनन्दमयी से उनकी भेंट कराने का ब्यौरा और किसी बड़े महात्मा से उनकी स्वतः भेंट होने का भी उल्लेख किया है ।
प्रस्तुत विवरण में आए अनन्ताकाश से दृश्यमान लोकाकृत्ति का विवरण लगभग ठीक वैसा ही दीख पड़ता है जैसा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति जंबूदीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, व्याख्या प्रज्ञप्ति अथवा लोक विभाग, तिलोयपण्णती, त्रिलोक सार आदि ग्रन्थों में लिखा बताया गया है। इस विवरण के अनुसार अनन्त आकाश के ठीक बीचों-बीच हमारा लोक अवस्थित है जो नीचे पल्यंक, मध्य में वज्र और ऊपर मृदंग की भांति
खण्ड १८, अंक ३ (अक्टू०-दिस०, ९२)
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