Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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जो उपकरणों को एवं शरीर को सजाने में लगा रहता है और ऋद्धि तथा यश का इच्छुक रहता है। छेदप्रायश्चित्त योग्य अतिचारों का सेवन करता है।
३. कुशील- यह दो प्रकार का है-१. प्रतिसेवनाकुशील और २. कषायकुशील। प्रतिसेवनाकुशील-जो पिण्डशुद्धि आदि उत्तरगुणों में अतिचार लगाते हैं। कषायकुशील-जो यदा कदा संज्वलन कषाय के उदय से स्वभावदशा में स्थिर नहीं रह पाता। ४. निर्ग्रन्थ-उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ। ५. स्नातक-सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इन पांच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य हैं।
जब तक प्रथम संहनन और चौदह पूर्व का ज्ञान रहा तब तक पूर्वोक्त दस प्रायश्चित्त दिये जाते थे। इनके विच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त भी विच्छिन्न हो गये- अर्थात् ये दोनों प्रायश्चित्त अब नहीं दिये जाते हैं। शेष आठ प्रायश्चित्त तीर्थ (चतुर्विधसंघ) पर्यन्त दिये जायेंगे।
पुलाक को व्युत्सर्गपर्यन्त छह प्रायश्चित्त दिये जाते थे।
प्रतिसेवकबकुश और प्रतिसेवनाकुशील को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। स्थविरों को अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त नहीं दिये जाते; शेष आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
निर्ग्रन्थ को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जा सकते हैं-१. आलोचना, २. विवेक। स्नातक केवल एक प्रायश्चित्त लेता है-विवेक। उन्हें कोई प्रायश्चित्त देता नहीं है। १. सामायिकचारित्र वाले को छेद और मूल रहित आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। २. छेदोपस्थापनीयचारित्र वाले को दसों प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। ३. परिहारविशुद्धिचारित्र वाले को मूलपर्यन्त आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं।
४. सूक्ष्मसंपरायचारित्र वाले को तथा ५. यथाख्यातचारित्र वाले को केवल दो प्रायश्चित्त दिये जाते हैं-१. आलोचना और २. विवेक। ये सब व्यवहार्य हैं।
१. गाहा
आलोयणपडिक्कमणे, मीस-विवेगे तहेव विउस्सग्गे। एए छ पच्छित्ता, पुलागनियंठाय बोधव्वा ॥ बउसपडिमेवगाणं, पायच्छिन्ना हवंति सव्वे वि। भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होंति॥ आलोयणा विवेगो य, नियठस्स दुवे भवे।
विवेगो य सिणायस्स, एमेया पडिवत्तितो॥ -व्यव०१० भाष्य, गाथा ३५७, ५८,५९ .. सामाइयसंजयाणं, पायच्छित्ता, छेद-मूलरहियट्ठा।
थेराणं जिणाणं पुण, मूलत अट्ठहा होइ॥ परिहारविसुद्धीए, मूलं ता अट्ठाति पच्छित्ता। थेराणं जिणाणं पुण, जव्विहं छेयादिवज्जं वा ।। आलोयणा-विवेगो य तइयं तु न विज्जती। सुहुमेय संपराए, अहक्खाए तहेव य॥ -व्यव० उ०१० भाष्य, गाथा ३६१-६२-६३-६४