Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्यवहारपंचक के क्रमभंग का प्रायश्चित्त
आगमव्यवहार के होते हुये यदि कोई श्रुतव्यवहार का प्रयोग करता है तो चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
इसी प्रकार श्रुतव्यवहार के होते हुये आज्ञाव्यवहार का प्रयोगकर्ता, आज्ञाव्यवहार के होते हुये धारणा व्यवहार का प्रयोगकर्ता तथा धारणाव्यवहार के होते हुये जीतव्यवहार का प्रयोगकर्ता चार गुरु के प्रायश्चित्त का पात्र होता है।
व्यवहारपंचक का प्रयोग पूर्वानुपूर्वीक्रम से अर्थात् अनुक्रम से ही हो सकता है किन्तु पश्चानुपूर्वीक्रम से अर्थात् विपरीतक्रम से प्रयोग करना सर्वथा निषिद्ध है।
आगमव्यवहारी आगमव्यवहार से ही व्यवहार करते हैं; अन्य श्रुतादि व्यवहारों से नहीं-क्योंकि जिस समय सूर्य का प्रकाश हो उस समय दीपक के प्रकाश की आवश्यकता नहीं रहती।
जीतव्यवहार तीर्थ पर्यन्त (जहाँ तक चतुर्विध संघ रहता है वहाँ तक) रहता है। अन्य व्यवहार विच्छिन्न हो जाते हैं। कुप्रावचनिकव्यवहार
___अनाज में, रस में, फल में और फूल में होने वाले जीवों की हिंसा हो जावे तो घी चाटने से शुद्धि हो जाती है।
कपास, रेशम, ऊन, एकखुर और दो खुर वाले पशु, पक्षी, सुगन्धित पदार्थ, औषधियों और रज्जु आदि की चोरी करे तो तीन दिन दूध पीने से शुद्धि हो जाती है।
ऋग्वेद धारण करने वाला विप्र तीनों लोक को मारे या कहीं भी भोजन करे तो उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है।
ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि तप करना, वर्षाऋतु में वर्षा बरसते समय बिना छाया के बैठना और शरद् ऋतु में गीले वस्त्र पहने रहना-इस प्रकार क्रमशः तप बढ़ाना चाहिये।
-व्यव०१० भाष्य गाथा ५५
-मनु० अ०११/१४३
१. गाहा-सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो।
होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो उ॥ २. अन्नाद्यजानां सत्त्वानां, रसजानां च सर्वशः।
फलपुष्पोद्भवानां च, घृतप्राशो विशोधनम् ।। ३. कार्पासकीटजीर्णानां, द्विशफैकशफस्य च।
पक्षिगन्धौषधीनां च, रज्ज्वाश्चैव त्र्यहं पयः ॥ ४. हत्वा लोकानपीमांस्त्री, नश्यन्नपि यतस्ततः ।
ऋग्वेदं धारयन्विप्रो, नैनः प्राप्नोति किञ्चन ।। ५. ग्रीष्मे पञ्चतपास्तुस्याद्वर्षा स्वभावकाशिकः ।
आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयस्तपः॥
-मनु० अ० ११/१६
-मनु० अ० ११/२६१
-मनु० अ०६/२३