Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मुनि के पास भेजे और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सुनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र , काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवे और प्रायश्चित्त दे। अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजे। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार-शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे- यह आज्ञाव्यवहार है। धारणाव्यवहार
किसी गीतार्थ श्रमण ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा करके जो श्रमण उसी प्रकार के अतिचार सेवन करने वाले को धारणानुसार प्रायश्चित्त देता है, वह धारणाव्यवहार है। अथवा-वैयावृत्य अर्थात् सेवाकार्यों से जिस श्रमण के गण का उपकार किया है वह यदि छेदश्रुत न सीख सके तो गुरु महाराज उसे कतिपय प्रायश्चित्त पदों की धारणा कराते हैं-यह भी धारणाव्यवहार है। जीतव्यवहार
___स्थिति, कल्प, मर्यादा और व्यवस्था-ये 'जीत' के पर्यायवाची हैं। गीतार्थ द्वारा प्रवर्तित शुद्ध व्यवहार जीतव्यवहार है।
श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीतव्यवहार है।
सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्ति कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है।
अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि-निषेध भी जीतव्यवहार है ?
-व्यव० भा० उ०१० गा०६६१
- व्यव० उ०१० भाष्य गाथा ७२४
-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा ७१५
१. सो ववहार विहण्णू, अणुमज्जित्ता सुत्तोवएसेणं ।
सीसस्स देइ अप्पं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं ॥ २. किं पुण गुणोवएसो, ववहारस्स उ चिउ पसत्थस्स।
एसो भे परिकहिओ, दुवालसंगस्स णवणीयं । जं जीतं सावज्ज, न तेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज्जं, तेण उ जीएण ववहारो॥ जं जस्स पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगा ज बहु विगप्पा, एसो खलु जीतकप्पो ॥ जं जीयमसोहिकर, पासत्थ-पमत्त-संजयाईण्णं । जइ वि महाजणाइन्नं, न तेण जीएण ववहारो॥ जं जीयं सोहिकर, संवेगपरायणेन दत्तेण । एगेण वि आइपणं, तेण उ जीएण ववहारो॥
-व्यव० भाष्य पीठिका गाथा १२
-व्यव० उ०१० भाष्य गाथा ७२०,७२१