Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तृतीय पांच कुलकरों ने अशान्ति फैलाने वालों को ‘धिक्' इस वाग्दण्ड से शासित कर निग्रह किया। यद्यपि दण्डनीय के ये तीनों दण्ड वाग्दण्ड मात्र थे, पर हिंसा के पर्यायवाची दण्ड ने मानव को कोमल न बनाकर क्रूर बनाया, दयालु न बनाकर दुष्ट बनाया। प्रथम कुलकर का नाम यद्यपि 'सुमति' था। मानव की सुख-समृद्धि के लिए उसे 'शमन' का उपयोग करना था पर काल के कुटिल कुचक्रों से प्रभावित होकर उसने भी 'दमन' का दुश्चक्र चलाया।
___अन्तिम कुलकर श्री ऋषभदेव थे। धिक्कार की दण्डनीति भी असफल होने लगी तो भगवान् ऋषभदेव (आदिनाथ) के श्रीमुख के कर्म त्रिपदी '१. असि, २. मसि, ३. कृषि' प्रस्फुरित हुई। मानव के सामाजिक जीवन का सूर्योदय हुआ। मानव समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। एक वर्ग शासकों का और एक वर्ग शासितों का। अल्पसंख्यक शासक वर्ग बहुसंख्यक शासित वर्ग पर अनुशासन करने लगा।
भगवान् आदिनाथ के सुपुत्र भरत चक्रवर्ती बने। पूर्वजों से विरासत में मिली दमननीति का प्रयोग वे अपने भाइयों पर भी करने लगे। उपशमरस के आदिस्रोत भ० आदिनाथ (ऋषभदेव) ने बाहुबली आदि को शाश्वत (आध्यात्मिक) साम्राज्य के लिए प्रोत्साहित किया तो वे मान गये। क्योंकि उस युग के मानव 'ऋजुजड़' प्रकृति के थे।
अहिंसा की अमोघ अमीधारा से भाइयों के हृदय में प्रज्वलित राज्यलिप्सा की लोभाग्नि सर्वथा शान्त हो गई।
भ० अजितनाथ से लेकर भ० पार्श्वनाथ पर्यन्त ऋजुप्राज्ञ' मानवों का युग रहा। ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेवों के शासन में दण्डनीति का इतना दमनचक्र चला कि सौम्य शमननीति को लोग प्रायः भूल गये। दाम-प्रलोभन, दण्ड और भेद-इन तीन नीतियों का ही सर्वसाधारण में अधिकाधिक प्रचार-प्रसार होता रहा।
अब आया 'वक्रजड' मानवों का युग। मानव के हृदयपटल पर वक्रता और जडता का साम्राज्य छा गया। सामाजिक व्यवस्था के लिए दण्ड (दमन) अनिवार्य मान लिया गया। अंग-भंग और प्राणदण्ड सामान्य हो गये। दण्डसंहितायें बनी, दण्ड-यन्त्र बने। दण्डन्यायालय और दण्डविज्ञान भी विकसित हुआ। आग्नेयास्त्र आदि अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का अतीत में, और वर्तमान में अणुबम आदि अनेक अस्त्रों द्वारा नृशंस दण्ड से दमन का प्रयोग होता रहा है। ..
पौराणिक साहित्य में एक दण्डपाणि (यमराज) का वर्णन है पर आज तो यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेकानेक दण्डपाणि ही चलते-फिरते दिखाई देते हैं। यह लौकिक द्रव्यव्यवहार है। लोकोत्तर द्रव्यव्यवहार
आचार्यादि की उपेक्षा करने वाले स्वच्छन्द श्रमणों का अन्य स्वच्छन्द श्रमणों के साथ अशनादि आदान-प्रदान का पारस्परिक व्यवहार। लोकोत्तर भावव्यवहार
यह दो प्रकार का है-१. आगम से और २. नोआगम से। आगम से-उपयोगयुक्त व्यवहार पद के अर्थ का ज्ञाता। नोआगम के पांच प्रकार के व्यवहार हैं१. आगमतो व्यवहारपदार्थज्ञाता तत्र चोपयुक्त 'उपयोगो भाव निक्षेप' इति वचनात्। -व्यव० भा० पीठिका गाथा ६