Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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व्यवहार चार प्रकार के हैं-१. नामव्यवहार २. स्थापनाव्यवहार ३. द्रव्यव्यवहार और ४. भावव्यवहार। १. नामव्यवहार-किसी व्यक्ति विशेष का 'व्यवहार' नाम होना। २. स्थापनाव्यवहार-व्यवहार नाम वाले व्यक्ति की सत् या असत् प्रतिकृति। ३. द्रव्यव्यवहार- के दो भेद हैं-आगम से और नोआगम से। आगम से-अनुपयुक्त (उपयोग रहित) व्यवहार पद का ज्ञाता। नोआगम से-द्रव्यव्यवहार तीन प्रकार का है-१. ज्ञशरीर २. भव्यशरीर और ३. तद्व्यतिरिक्त । ज्ञशरीर-व्यवहार पद के ज्ञाता का मृतशरीर। भव्यशरीर-व्यवहार पद के ज्ञाता का भावीशरीर।
तद्व्यतिरिक्त द्रव्यव्यवहार-व्यवहार श्रुत या पुस्तक। यह तीन प्रकार का है-१. लौकिक, २. लोकोत्तर और ३. कुप्रावचनिक। लौकिक द्रव्यव्यवहार का विकासक्रम
मानव का विकास भोगभूमि से प्रारम्भ हुआ था। इस आदिकाल में भी पुरुष पति रूप में और स्त्री पत्नी रूप में ही रहते थे, किन्तु दोनों में काम-वासना अत्यन्त सीमित थी। सारे जीवन में उनके केवल दो सन्तानें (एक साथ) होती थीं, उनमें भी एक बालक और एक बालिका ही। 'हम दो हमारे दो' उनके सांसारिक जीवन का यही सूत्र था। वे भाई-बहिन ही युवावस्था में पति-पत्नी रूप में रहने लगते थे।
उनके जीवन-निर्वाह के साधन थे कल्पवृक्ष। सोना-बैठना उनकी छाया में, खाना फल, पीना वृक्षों का मदजल। पहनते थे वल्कल और सुनते थे वृक्षवाद्य प्रतिपल। न वे काम-धन्धा करते थे, न उन्हें किसी प्रकार की कोई चिन्ता थी, अतः वे दीर्घजीवी एवं अत्यन्त सुखी थे। न वे करते थे धर्म, न वे करते थे पापकर्म, न था कोई वक्ता, न था कोई श्रोता, न थे वे उद्दण्ड, न उन्हें कोई देता था दण्ड, न था कोई शासक, न थे वे शासित। ऐसा था युगलजन-जीवन।
कालचक्र चल रहा था। भोगभूमि कर्मभूमि में परिणत होने लगी थी। जीवन-यापन के साधन कल्पवृक्ष विलीन होने लगे थे। खाने-पीने और सोने-बैठने की समस्यायें सताने लगी थीं। क्या खायें-पीयें ? कहाँ रहें, कहाँ सोयें ? ऊपर आकाश था, नीचे धरती थी। सर्दी, गर्मी और वर्षा से बचें तो कैसे बचें?इत्यादि अनेक चिन्ताओं ने मानव को घेर लिया था। खाने-पीने के लिए छीना-झपटी चलने लगी। अकाल मृत्युएँ होने लगी और जोड़े (पति-पत्नी) का जीवन बेजोड़ होने लगा।
प्रथम सुषम-सुषमाकाल और द्वितीय सुषमाकाल समाप्त हो गया था। तृतीय सुषमा-दुषमाकाल के दो विभाग भी समाप्त हो गये थे। तृतीय विभाग का दुश्चक्र चल रहा था। वह था संक्रमण-काल।
सुख, शान्ति एवं व्यवस्था के लिए सर्वप्रथम प्रथम पांच कुलकरों ने अपराधियों को 'हत्'-इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित किया, पर कुछ समय बाद यह दण्ड प्रभावहीन हो गया। दण्ड की दमन नीति का यह प्रथम सूत्र था। मानव हृदय में हिंसा के प्रत्यारोपण का युग यहीं से प्रारम्भ हुआ।
द्वितीय पांच कुलकरों ने आततायियों को 'मत' इस वाग्दण्ड से प्रताड़ित कर प्रभावित किया, किन्तु यह दण्ड भी समय के सोपान पार करता हुआ प्रभावहीन हो गया।