Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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तपकल्प ७५. कृतिकर्मसूत्र, ७६. ग्लानसूत्र, ७७. पारिहारिकसूत्र ७८. व्यवहारसूत्र, मरणोत्तरविधि ७९. विष्वग्भवनसूत्र, महाव्रत और समिति के संयुक्तकल्प ८०. परिमन्थसूत्र।
इस वर्गीकरण से प्रत्येक विज्ञपाठक इस आगम की उपादेयता समझ सकते हैं। श्रामण्य जीवन के लिए ये विधि-निषेधकल्प कितने महत्त्वपूर्ण हैं। इनके स्वाध्याय एवं चिन्तन-मनन से ही पंचाचार का यथार्थ पालन सम्भव है। यह आगमज्ञों का अभिमत है तथा इन विधि-निषेधकल्पों के ज्ञाता ही कल्प विपरीत आचरण के निवारण करने में समर्थ हो सकेंगे. यह स्वत:सिद्ध है।
(३) व्यवहारसूत्र
प्रस्तुत व्यवहारसूत्र तृतीय छेदसूत्र है। इसके दस उद्देशक हैं। दसवें उद्देशक के अंतिम (पांचवें) सूत्र में पाँच व्यवहारों के नाम हैं। इस सूत्र का नामकरण भी पांच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया
व्यवहार-शब्दरचना
वि + अव + ह + घञ् । 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग हैं। हज्-हरणे धातु है। 'ह' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर हार बनता है। वि+अव+हार – इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। 'वि'विविधता या विधि का सूचक है। 'अव'-संदेह का सूचक है। 'हार'-हरण क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहारसूत्र के प्रमुख विषय
१. व्यवहार, २. व्यवहारी और ३. व्यवहर्तव्य-ये तीन इस सूत्र के प्रमुख विषय हैं।
दसवें उद्देशक के अन्तिम सूत्र में प्रतिपादित पांच व्यवहार करण (साधन) हैं, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (आचार्यादि) व्यवहारी (व्यवहार क्रिया प्रवर्तक) कर्ता हैं। और श्रमण-श्रमणियां व्यवहर्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं। अर्थात् इनकी अतिचार शुद्धिरूप क्रिया का सम्पादन व्यवहारज्ञ व्यवहार द्वारा करता है।
१. विनय वैयावृत्य और प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तपों का विधान करने वाले ये सूत्र हैं। २. प्रथम छेदसूत्र दशा, (आयारदशा दशाश्रुतस्कन्ध), द्वितीय छेदसूत्र कल्प (बृहत्कल्प) और तृतीय छेदसूत्र व्यवहार।
देखिए सम० २६ सूत्र-२। अथवा उत्त० अ० ३१, गा० १७। ३. भाष्यकार का मन्तव्य है-व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक का पांचवां सूत्र ही अन्तिम सूत्र है। पुरुषप्रकार से दसविधवैयावृत्य
पर्यन्त जितने सूत्र हैं, वे सब परिवर्धित हैं या चूलिकारूप हैं। ४. 'वि' नानार्थे ऽव' संदेहे, 'हरणं' हार उच्यते।
नाना संदेहहरणाद, व्यवहार इति स्थितिः॥ -कात्यायन
नाना विवाद विषयः संशयो हियतेऽनेन इति व्यवहारः । ५. चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा
गणसोहिकरे नाम एगे नो माणकरे।...... -व्यव० पुरुषप्रकार सूत्र