Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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कालमान के लिये भी कल्प शब्द का प्रयोग मिलता है। चौदह मन्वन्तरों का कालमान कल्प शब्द से जाना जाता है। उसमें चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष बीत जाते हैं। इतने लम्बे काल की संज्ञा को कल्प कहा
है।
सदृश अर्थ में भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि श्रमणकल्प, ऋषिकल्प इत्यादि।
कल्प शब्द उस वृक्ष के लिए भी प्रयुक्त होता है जो वृक्ष मनोवांछित फल देने वाला है, वह कल्पवृक्ष कहलाता है।
राज्यमर्यादा के लिए भी कल्प शब्द का प्रयोग किया जाता है। बारहवें देवलोक तक राजनीति की मर्यादा है। इसी कारण उन देवलोकों को 'कल्प देवलोक' कहा जाता है। मर्यादा वैधानिकरीति से जो भी कोई जीवन चलाता है, वह अवश्य ही सुख और सम्पत्ति से समृद्ध बन जाता है। प्रस्तुत शास्त्र का नाम जिस कल्प शब्द से चरितार्थ किया है, वह उपर्युक्त अर्थों से बिल्कुल भिन्न है।
प्रस्तुत प्रसंग में कल्प का अर्थ धर्म-मर्यादा है। साधु आचार ही धर्म-मर्यादा है। जिस शास्त्र में धर्म-मर्यादा का वर्णन हो वह कल्प है, नाम विषयानुरूप ही है। जिस शास्त्र का जैसा विषय हो वैसा नाम रखना यथार्थ नाम कहलाता है। साधुधर्म के आन्तरिक और बाह्य-आचार का निर्देश एवं मर्यादा बताने वाला शास्त्र कल्प कहलाता है।
जिस सूत्र में भगवान् महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभदेव का जीवनवृत्त है, उस शास्त्र के अंतिम प्रकरण में साधु समाचारी का वर्णन है। वह पर्युषणाकल्प होने से लघुकल्प है। उसकी अपेक्षा से जिसमें साधु-मर्यादा का वर्णन विस्तृत हो, वह बृहत्कल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधिविधानों का सामान्य रूप से वर्णन है। बृहत्कल्प शास्त्र में जो भी वर्णन है उन सबका पालन करना उक्त चारित्रशीलों के लिये अवश्यंभावी है। विविध सूत्रों द्वारा साधु साध्वी की विविध मर्यादाओं का जिसमें वर्णन किया गया है, उसे बृहत्कल्पसूत्र कहते हैं। प्राकृत भाषा में विहक्कप्पसुत्तं रूप बनता है।
प्रस्तुत 'कप्पसुत्तं' (कल्पसूत्र) और 'कप्पसुयं' (कल्पश्रुत) एक हैं या भिन्न हैं ? यह आशंका अप्रासंगिक है, क्योंकि कप्पसुत्तं' कालिक आगम है।
आचारदशा अर्थात् दशाश्रुतस्कन्ध का आठवां अध्ययन 'पर्युषणाकल्प' है, इसमें केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पहले इस 'पर्युषणाकल्प' को तीर्थंकरों के जीवनचरित्र तथा स्थविरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः शनैः कल्पसूत्र के नाम से जनसाधारण में प्रसिद्ध हो गया। इस कल्पसूत्र से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिये प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम बृहत्कल्पसूत्र दिया गया है। वास्तव में बृहत्कल्पसूत्र नाम के आगम का किसी आगम में उल्लेख नहीं है। नन्दीसूत्र में इसका नाम 'कप्पो'
है।
कप्पसुयं के दो विभाग हैं 'चुल्लकप्पसुयं' और 'महाकप्पसुयं'। इसी प्रकार 'कप्पियाकप्पियं' भी उत्कालिक आगम है। ये सब प्रायश्चित्त-विधायक आगम हैं, पर ये विच्छिन्न हो गये हैं ऐसा जैनसाहित्य के इतिहासज्ञों का अभिमत है।
१. अभिधान राजेन्द्र : भाग तृतीय पृष्ठ २३९ पर 'कप्पसुयं' शब्द का विवेचन
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