Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ (१) दशाश्रुतस्कन्ध अथवा आचारदशा ___ समवायांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकसूत्र में कल्प और व्यवहारसूत्र के पूर्व आयारदसा (आचारदशा) का नाम कहा गया है। अतः छेदसूत्रों में यह प्रथम छेदसूत्र है। स्थानांगसूत्र में दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से 'दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं-१. असमाधिस्थान, २. सबलदोष, ३. आशातना, ४. गणिसम्पदा, ५. चित्तसमाधिस्थान, ६. उपासकप्रतिमा, ७. भिक्षुप्रतिमा, ८. पर्युषणाकल्प, ९. मोहनीयस्थान और १०. आयतिस्थान। इन दस अध्ययनों में असमाधिस्थान, चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योगशास्त्र से उनकी तुलना की जाये तो ज्ञात होगा कि चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए आचारदशा के दस अध्ययनों में ये चार अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा श्रावक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। पर्दूषणाकल्प में पर्युषण कब करना चाहिये, कैसे मनाना चाहिए कब मनाना चाहिये, इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। सबलदोष और आशातना इन दो दशाओं में साधुजीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिये। इनमें जो त्याज्य हैं, उनका दृढ़ता से त्याग करना चाहिये और जो उपादेय हैं, उनका पालन करना चाहिये। चतुर्थ दशागणिसंपदा में आचार्यपद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व, प्रभाव तथा उसके शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। आचार्यपद की लिप्सा में संलग्न व्यक्तियों को आचार्यपद ग्रहण करने के पूर्व इनका अध्ययन करना आवश्यक है। इस प्रकार यह दशाश्रुतस्कन्ध (आचारदशा) सूत्र श्रमणजीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकारान्तर से दशाश्रुतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य का उल्लेख इस रूप में भी हो सकता हैप्रथम तीन दशाओं और अंतिम दो दशाओं में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। चौथी दशा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिये उपादेयाचार का कथन है। पांचवीं दशा में उपादेयाचार का निरूपण है। छठी दशा में अनगार के लिये ज्ञेयाचार और सागार (श्रमणोपासक) के लिये उपादेयाचार का कथन है। सातवीं दशा में अनगार के लिये उपादेयाचार और सागार के लिये ज्ञेयाचार का कथन किया है। आठवी दशा में अनगार के लिये कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार हैं। इस प्रकार यह आचारदशा-दशाश्रुतस्कंध अनगार और सागार दोनों के लिये उपयोगी है। कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों में ही हेय, ज्ञेय और उपादेय आचार का कथन किया गया है। (२) बृहत्कल्पसूत्र कल्प शब्द अनेक अर्थों का बोधक है, इस शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। वेद के छह अंग हैं-उनमें एक वह अंग है जिसमें यज्ञ आदि कर्मकाण्डों का विधान है, वह अंग कल्प कहलाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 550