Book Title: Trini Chedsutrani
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 12
________________ प्रायश्चित्त की अनिवार्यता दोष शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है, उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात हो जाता है। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ विशेष संकेत करते हैं। अनगारधर्म के पांच आचारों के बीचोंबीच चारित्राचार को स्थान देने का यह हेतु है कि ज्ञानाचारदर्शनाचार तथा तपाचार-वीर्याचार की समन्वित साधना निर्विघ्न सम्पन्न हो, इसका एक मात्र साधन चारित्राचार है। चारित्राचार के आठ विभाग हैं-पाँच समिति, तीन गुप्ति। पाँच समितियां संयमी जीवन के निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिरूपा हैं और तीन गुप्तियां तो निवृत्तिरूपा ही हैं। इनकी भूमिका पर अनगार की साधना में एक अपूर्व उल्लास, उत्साह के दर्शन होते हैं। किन्तु विषय-कषायवश, राग-द्वेषादि के कारण यदि समिति, गुप्ति और महाव्रतों की मर्यादाओं का अतिक्रम, व्यतिक्रम या अतिचार यदा-कदा हो जाये तो सुरक्षा के लिये प्रायश्चित्त प्राकार (परकोटा) रूप है। फलितार्थ यह है कि मूलगुणों, उत्तरगुणों में प्रतिसेवना का घुन लग जाये तो उसके परिहार के लिये प्रायश्चित्त अनिवार्य है। छेदप्रायश्चित्त की मुख्यता का कारण प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं। इनमें प्रारंभ के छह प्रायश्चित्त सामान्य दोषों की शुद्धि के लिये हैं और अंतिम चार प्रायश्चित्त प्रबल दोषों की शुद्धि के लिये हैं। छेदार्ह प्रायश्चित्त अंतिम चार प्रायश्चित्तों में प्रथम प्रायश्चित्त है। व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या करते हुए आयुर्वेद का एक रूपक प्रस्तुत किया है। उसका भाव यह है कि किसी व्यक्ति का अंग-उपांग रोग या विष से इतना अधिक दूषित हो जाये कि उपचार से उसके स्वस्थ होने की संभावना ही न रहे तो शल्यक्रिया से उस अंग-उपांग का छेदन करना उचित है, पर रोग या विष को शरीर में व्याप्त नहीं होने देना चाहिये। क्योंकि ऐसा न करने पर अकालमृत्यु अवश्यंभावी है। किन्तु अंगछेदन के पूर्व वैद्य का कर्तव्य है कि रुग्ण व्यक्ति और उसके निकट संबंधियों को समझाये कि अंग-उपांग रोग से इतना दूषित हो गया है कि अब औषधोपचार से स्वस्थ होने की संभावना नहीं है। जीवन की सुरक्षा और वेदना की मुक्ति चाहें तो शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करवा लें। यद्यपि शल्यक्रिया से अंग-उपांग का छेदन करते समय तीव्र वेदना होगी या होगी थोड़ी देर, किन्तु शेष जीवन वर्तमान जैसी वेदना से मुक्त रहेगा। इस प्रकार समझाने पर वह रुग्ण व्यक्ति और उसके अभिभावक अंग-छेदन के लिये सहमत हो जायें तो चिकित्सक का कर्तव्य है कि अंग-उपांग का छेदन कर शरीर और जीवन को व्याधि से बचावे। ___ इस रूपक की तरह आचार्य आदि अनगार को समझायें कि दोष प्रतिसेवना से आपके उत्तरगुण इतने अधिक दूषित हो गये हैं कि अब उनकी शुद्धि आलोचनादि सामान्य प्रायश्चित्तों से संभव नहीं है। अब आप चाहें तो प्रतिसेवनाकाल के दिनों का छेदन कर शेष संयमी जीवन को सुरक्षित किया जाये। अन्यथा न समाधिमरण होगा और न भवभ्रमण से मुक्ति होगी। इस प्रकार समझाने पर वह अनगार यदि प्रतिसेवना का परित्याग कर छेदप्रायश्चित्त स्वीकार करें तो आचार्य उसे छेदप्रायश्चित्त देकर शुद्ध करें। ___ यहाँ यह विशेष जानना चाहिये कि छेदप्रायश्चित्त से केवल उत्तरगुणों में लगे दोषों की शुद्धि होती है। मूलगुणों में लगे दोषों की शुद्धि मूलार्ह आदि तीन प्रायश्चित्तों से होती है।

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