Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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४८ वर्षीया श्रीमती सुशीलाबाई और एकमात्र १९ वर्षीय पुत्र चिरंजीव नलिन कुमार है। कभी हमने यह कल्पना नहीं की थी कि ऐसे यशस्वी, लोकप्रिय और सर्वहितैषी विद्वानका यह परिवार निराश्रित हो जायेगा | जो घर आचार्य शास्त्रीके मित्रों, बन्धुओं, छात्रों और प्रचुर मित्र-अध्यापकोंसे भरा रहता था वह सहसा रिक्त हो जायेगा, यह कभी विचार नहीं आया था । यही जीवनको सबसे बड़ी विडम्बना है । जीवनके साथ संयोग-वियोग उसी तरह लगे हुए हैं जिस तरह सुख और दुःख सम्पृक्त हैं । यही सोचकर धैर्य, साहस और विवेककी त्रिपुटी मानव-परिवारको जीवन-पथमें संबलका काम करती है ।
हमारा विश्वास है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री विनश्वर शरीरसे आज भले ही न हों, किन्तु सरस्वती-साधनासे प्रसूत यश और कृतियोंसे वे अमर हैं। उन्हें हमारी परोक्ष श्रद्धाञ्जलि है और परिवारके प्रति हार्दिक समवेदना। आभार
इस विशाल ग्रन्थो सूजन और प्रकाशनका विद्वत्परिषद्ने जो निश्चय एवं संकल्प किया था, उसकी पूर्णता पर आज हमें प्रसन्नता है। इस संकल्पमें विद्वत्परिषद्के प्रत्येक सदस्यका मानसिक या वाचिक या कायिक सहभाग है। कार्यकारिणी के सदस्योंने अनेक बैठकोंमें सम्मिलित होकर मूल्यवान् विचार-दान किया है । ग्रन्थ-वाचनमें श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और डॉ. ज्योतिप्रसादजोका तथा ग्रन्थको उत्तम बनानेमें स्थानीय विद्वान् प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, पण्डित अमृतलालजी शास्त्री एवं पण्डित उदयचन्द्रजी बौद्धदर्शनाचार्यका भी परामर्शादि योगदान मिला है।
पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजोने 'आद्य मिताक्षर' रूपमें आशीर्वचन प्रदान कर तथा वरिष्ठ विद्वान् श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'प्राककथन' लिखकर अनुगृहीत किया है। __ खतौली, भोपाल, बम्बई, दिल्ली, मेरठ, जबलपुर, तेंदूखेड़ा, सागर, वाराणसी, आरा आदि स्थानोंके महानुभावोंने ग्रन्थका अग्रिम ग्राहक बनकर सहायता पहुँचायी है । विद्वत्परिषद्के कर्मठ मंत्री आचार्य पण्डित पन्नालालजी सागरके साथ मैं भी इन सबका हृदयसे आभार मानता हूँ। वीर-शासन-जयन्ती, श्रावण कृष्णा १. वी. नि० सं० २५००,
दरबारीलाल कोठिया ५ जुलाई, १९७४
अध्यक्ष बाराणसी
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वतारिषद्
२६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा