Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
है.! ... पुनः पुनः देवाधिदेव अरहन्त देव, श्रुत-देवता, निर्ग्रन्थ गुरु के पाद-पंकज की वन्दना । इस ग्रन्थराज पर परिशीलन लिखने के लिए विभिन्न सुधी - जनों की प्रार्थना एवं आग्रह रहा है, ताकि आ. अकलंक स्वामी जी का यह महान् ग्रंथ जन-जन की समझ का विषय बने, – इस आग्रह को ध्यान में रखकर ही यह परिशीलन प्रारंभ किया
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था, जिसका डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत; डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर एवं लखनऊ-वासी डॉ. वृषभ प्रसाद जैन ने अवलोकन व संपादन किया, मैं इन सभी को साधुवाद देता हूँ। न्याय, अध्यात्म का युगपद् दर्शन होता है इस ग्रंथराज में व इसमें विषय को सरल भाषा में लिखने, न्याय-नय के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने तथा सन्दर्भित विषयों को भी स्पर्श करते हुए खोलने का प्रयास किया गया है; उम्मीद है कि सुधी - जन ग्रन्थ का स्वाध्याय करके अवश्य ही आत्म-बोध को प्राप्त करेंगे ।
।। इति शुभं भूयात् ।।
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निहन्यते यो हि परस्य हन्ता पातास्तु पूज्यो जगतां समन्तात् । किमङ्ग! न ज्ञातमहो त्वयैव दृगञ्जनायाङ्गुलिवरञ्जितैव । ।
आचार्य ज्ञानसागर, वीरोदय महाकाव्य 16 / 7
जो दूसरों को मारना चाहता है, वह स्वयं ही किसी के द्वारा मारा जाता. है और जो दूसरों की रक्षा करता है, वह सबके द्वारा पूजनीय हो जाता है । हे पुत्र ! क्या तुम्हें यह भी पता नहीं कि आँख में अंजन लगाने वाली अंगुली को भी सबसे पहले खुद को काला होना पड़ता है या खुद काली होती है ।