Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ सभी विरोधों का समाधान है: अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद : ५ अन्यथा वे उसका खण्डन नहीं करते। अनेकान्त दो प्रकार का है- सम्यग् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। परस्पर सापेक्ष धर्मों का सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करना सम्यग् अनेकान्त है तथा परस्पर निरपेक्ष अनेक धर्मों का ग्रहण मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- सम्यग् एकान्त और मिथ्या एकान्त। अन्य सापेक्ष एक धर्म का ग्रहण सम्यगेकान्त है और अन्य धर्म का निषेध करके एक का अवधारण करना मिथ्यैकान्त है। मिथ्या अनेकान्त और मिथ्या एकान्त प्रमाणाभास हैं एवं अग्राह्य हैं, जबकि सम्यगनेकान्त और सम्यगेकान्त प्रमाणरूप हैं एवं ग्राह्य हैं। अन्य दर्शनों में स्याद्वाद-मुखापेक्षता शङ्कराचार्य के अद्वैत वेदान्त में एक नित्य, निर्गुण परम ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया गया है। वह ब्रह्म जब मायोपाधि से युक्त होता है तो सगुण ब्रह्म (ईश्वर) बनकर सृष्टि करता है। ब्रह्म की यह माया या अज्ञान सत्-असत् से अनिर्वचनीय है, त्रिगुणात्मक है, ज्ञान-विरोधी है तथा भावरूप कुछ है। इसकी व्याख्या स्याद्वाद सिद्धान्त को माने बिना सम्भव नहीं है। ब्रह्म की निमित्त व उपादान कारणता, समष्टि चैतन्य, व्यष्टि चैतन्य, जीवन्मुक्त व विदेहमुक्त आदि की भी व्याख्यायें स्याद्वाद-मुखापेक्षी हैं। अत: अद्वैत (एकमात्र अविकारी तत्त्व) के रहते नानात्मक जगत् की व्याख्या के लिए वे त्रिविध सत्ता को स्वीकार करते हैं- पारमार्थिक सत्ता, व्यावहारिक सत्ता और प्रातिभासिक सत्ता। पारमार्थिक सत्ता जैनों के शुद्ध निश्चय नय या परम संग्रह नयवत् है। व्यावहारिक सत्ता जैनों के व्यवहार नय एवं पर्यायार्थिक नयवत् है। प्रातिभासिक सत्ता जैनों के उपचरित नयवत् है। वेदों का नासदीयसूक्त अनेकान्तवाद का ही पोषक है।११ ब्रह्म के निर्वचन में श्वेताश्वतर - उपनिषद् के 'अणोरणीयान् महतो महीयान्',१२ 'क्षरमक्षरं व्यक्ताव्यक्तं च'१३ की व्याख्या बिना अनेकान्त सिद्धान्त के सम्भव नहीं है। विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य अपने विशिष्टाद्वैत की सिद्धि, भास्करभट्ट अपने भेदाभेद की सिद्धि, वल्लभाचार्य अपने निर्विकार ब्रह्म में उभयरूपता (परिणामीनित्यता) की सिद्धि तथा विज्ञानभिक्षु (विज्ञानामृतभाष्यकार) अपने ब्रह्म में प्रकारभेद की सिद्धि अनेकान्त सिद्धान्त को स्वीकार किये बिना नहीं कर सकते हैं।२४ जयराशिभट्ट ने अपने तत्त्वोपप्लवसिंह ग्रन्थ में भाव-अभाव आदि अनेक विकल्प जालों से वस्तु के स्वरूप का मात्र खण्डन किया है; जिनका समाधान स्याद्वादपद्धति से ही किया जा सकता है। व्योमशिवाचार्य (प्रशस्तपादभाष्य के प्राचीन

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