Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ उनको बचाते हुए गमन करें। यदि कोई गृहिणी प्राणी, बीज, हरियाली आदि को कुचलती हुई आहार लेकर मुनि को दे तो साधु उस आहार को न ले। इसी तरह कन्दमूल, पत्ती वाला साग, बिना पके हुए फल इत्यादि वस्तुओं को आहार में न लेने का विधान दशवैकालिक सूत्र में है।१३ इसी प्रसंग में 'पुद्गल' और 'अनिमिष' नामक पदार्थों को ग्रहण न करने का उल्लेख है। ये दोनों शब्द जैन आगम साहित्य में बहत चर्चित हैं। टीकाकारों ने इनका अर्थ माँस और मछली किया है,१४ जो मुनियों के लिए अभक्ष्य माने गए हैं। इस तरह जैन आगमों में शुद्ध, भक्ष्य, शाकाहारी भोजन को ही ग्रहण करने का विधान है। मांसाहार और अभक्ष्य पदार्थ सर्वथा त्याज्य है। अहिंसक दृष्टि के कारण मद्य, माँस, मधु आदि पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में मांसाहार को नरकागमन का एक प्रमुख कारण माना गया है क्योंकि मांस-भक्षण घोर हिंसा और पाप का कारण है। परवर्ती आचार्यों ने मांसाहार से होने वाली मानसिक, शारीरिक और नैतिक हानियों के सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला है। वर्तमान सन्दर्भ में तो आज के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मांसाहार ही है। माँसाहार से पशु-जगत्, वनस्पति और खनिज-सम्पदा के पर्यावरण का भी संकट पैदा हुआ है। अत: शाकाहार ही मनुष्य को प्रकृति से जोड़ सकता है। मनुष्य का भोजन जितना अधिक शाक, सब्जी, अन्न और फलों पर आधारित होगा उतना ही प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण होगा। प्रकृति को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जैन आगमों में आहारचर्या के माध्यम से अनेक मार्ग सुझाए गए हैं। दशवैकालिकसूत्र में उदाहरण दिया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को नुकसान पहुँचाए बिना उनसे थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपना जीवन यापन करता है वैसे ही सच्चे साधु को इसी श्रमरवृत्ति के द्वारा प्रकृति प्रदत्त शुद्ध भक्षणीय पदार्थों से अपना आहार ग्रहण करना चाहिए।१५ साधुओं के आहार की इस मधुकरीवृत्ति को गोचरी भी कहते हैं। उसका अर्थ है कि जैसे गाय, खेत में उगी घास को थोड़ा-थोड़ा अलग-अलग स्थानों से चरकर अपनी भूख मिटाती है उसी तरह साधु भी श्रावकों के लिये तैयार किये गए भोजन में से थोड़ा-थोड़ा अंश ग्रहण कर अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। इन सब के मूल में जीवन-निर्वाह के लिए कम से कम हिंसा जिसमें हो उन पदार्थों को लेने की भावना छिपी हुई है। यही एक ऐसा मार्ग है जिसको अपनाने से प्रकृति का संरक्षण हो सकता है।

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