Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ आगम-प्रणीत आहारचर्या और शाकाहार : ४३ पुढवि च आउकायं, तेउकायं च वाउकायंच । पणगाई वाय-हरियाई, तसकायं च सब्वसो णच्चा। एयाइं संति पडिलेहे, चि मिंताई से अभिण्याय । परिवज्जिया ण विहरित्था, इति संखाए से महावीरे।।। उत्तराध्ययनसूत्र में आहार सम्बन्धी अनेक नियमों का वर्णन है। शुद्ध और परिमित भोजन भी संयम की साधना और प्राणों की रक्षा के लिए लेने का विधान है। यदि संयम की पालना न होती हो तो भोजन को छोड़ देने का विधान है। इसी प्रसंग में यह भी कहा गया है कि प्राणियों की दया के लिए भिक्षु भक्तपान की गवेषणा न करे। इसका आशय यह है कि प्राणियों की रक्षा भोजन से अधिक महत्त्वपूर्ण मानी गई है। उत्तराध्ययन सत्र के पैंतीसवें अध्याय में स्पष्ट कहा गया है कि भोजन पानी की व्यवस्था करने और करवाने में अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। जल, धान्य, पृथ्वी, काष्ठ के आश्रित अनेक जीवों का भोजन पकवाने में हनन होता है। इसलिए साधु अपने लिए भोजन पकाने और पकवाने का कार्य न करें। इस विधान के पीछे भी प्राकृतिक साधनों की सुरक्षा का उद्देश्य है। इसी ग्रन्थ में निष्कर्ष के रूप में कहा गया है कि साधु भोजन के लिये लोभी, रसों में आसक्त और मूच्छित न हो। वह रसों के स्वाद के लिये भोजन न खाए। केवल जीवन-निर्वाह के लिये आहार ग्रहण करें। जैन आगमों के प्रसिद्ध ग्रन्थ दशवैकालिकसूत्र में मुनियों की आहारचर्या के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण प्राप्त है। इसके चतुर्थ अध्ययन में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में चेतनता का वर्णन कर और त्रस जीवन के प्रकारों का वर्णन कर सब प्रकार के जीवों की हिंसा से विरत रहने के लिए विधान किया गया है। जीवों की रक्षा का पूर्ण रूप से पालन करने के लिये ही आहारचर्या के अन्तर्गत यत्नपूर्वक आहार लेने का विधान और रात्रि-भोजन त्याग का निरूपण है। दशवैकालिकसूत्र में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक आधारभूत सूत्र प्रस्तुत किया गया है कि यदि व्यक्ति सावधानीपूर्वक जीवों की रक्षा का प्रयत्न करते हुए चले, खड़ा हो, बैठे, सोये, भोजन करे और बोले तो उसे पाप कर्म का बन्ध नहीं होता अर्थात् उसके द्वारा जीवनयापन हेतु की गई क्रियाएँ समस्त प्राकृतिक सम्पदा को सुरक्षित रखने में सहायक हैं। इसी ग्रन्थ में आहार-ग्रहण के प्रसंग में पर्यावरण संरक्षण के लिये भी अन्य कई सूत्र उपलब्ध हैं। विहार करने के प्रसंग में बताया गया है कि साधक चलते समय रास्ते में पड़े हुए बीज, हरियाली, जल, गीली मिट्टी एवं प्राणियों को देखकर

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