Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 100
________________ |जिज्ञासा और समाधान || जिज्ञासा- इतिहास से ज्ञात होता है कि सभी जैन तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, तप (दीक्षा), ज्ञान और मोक्ष- ये पाँचों कल्याणक या तो पूर्वी भारत या उत्तरी भारत से सम्बन्धित रहे हैं, फिर कब जैनधर्म दक्षिण भारत में गया? वहाँ के प्रमुख प्राचीन ग्रन्थकार कौन हैं? श्रीमती नीलू जैन, मुंबई समाधान- आपका यह कथन सही है कि चौबीसों तीर्थङ्करों की कर्मस्थली उत्तर भारत या पूर्वी भारत रहा है परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह भी सिद्ध है कि चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर के काल में उत्तर भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बारह वर्षों के दुर्भिक्ष को देखते हुए अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने दक्षिण भारत की ओर १२ हजार साधुओं के साथ प्रस्थान किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ गये थे। उन्होंने श्रवणबेलगोल पहुँचकर अपने साथ आए साधुओं को चोल, पाण्ड्य आदि प्रदेशों में जाने का आदेश दिया था तथा स्वयं वहाँ अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ चन्द्रगिरि पर्वत (कलवप्पु या कटवंप्र) पर ठहर गए थे। कुछ का कहना है कि वे बाद में नेपाल की ओर चले गए थे। वस्तुतः अन्त समय आने पर उन्होंने श्रवणबेलगोल में ही समाधिपूर्वक अपने शरीर का त्याग किया था। यह बात वहीं पर स्थित ६ठी-७वीं शताब्दी के शिलालेख से प्रमाणित होती है। इस तरह यह तो सुनिश्चित है कि भद्रबाहु के समय (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में) जैनधर्म दक्षिण भारत में गया। हाथी-गुम्फा से प्राप्त खारवेल के शिलालेख (ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी) से ज्ञात होता है कि कलिंग जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था। सम्भावना है कि भगवान् महावीर ने कलिंग में विहार किया हो। इसी शिलालेख से यह भी सिद्ध होता है कि ईसा पूर्व ४२४ के आसपास सम्राट नन्द कलिंग को जीतकर वहाँ स्थित 'जिन-प्रतिमा' को मगध ले गया था, जिस प्रतिमा को खारवेल ने मगध पर विजय प्राप्त करके पुनः उस 'जिन-प्रतिमा' को कलिंग में स्थापित किया था। खारवेल के शिलालेख से यह भी सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर जैन मन्दिर थे। स्व० काशी प्रसाद जायसवाल ने लिखा है (जर्नल ऑफ बिहार उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, जिल्द ३, पृ० ४४८) कि उड़ीसा में जैनधर्म का प्रवेश शिशु नागवंशी राजा. नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। जैनधर्म कलिंग से आन्ध्र में, आन्ध्र से तमिल में तथा तमिल से श्री लंका में पहुँचा। वहाँ के अनेक शासकों तथा राजवंशों का जैनधर्म को संरक्षण मिला। आशा तो है कि इसके पूर्व भी जैनधर्म वहाँ रहा होगा अथवा यह भी सम्भव है कि उनके साथ गए श्रावकों ने ही व्यवस्था की हो।

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